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________________ ८४६ नेमिनाथ-afr विचलित न होकर धैर्यसे काम लो । पाण्डव लोग हमारे मित्र और आत्मीय हैं। वे हमें भाईकी ही तरह प्रेम करते थे । इसलिये चलो, हमलोग इस समय उन्हींके यहाँ चलकर आश्रय ग्रहण करेंगे ।" " कृष्णने कहा :- "भाई मैंने तो उन लोगोंको देशसे निर्वासित कर दिया था, इसलिये मुझे वहाँ जाते हुए लज्जा मालूम होती है। अब मैं कौन मुँह लेकर उनके यहाँ जाऊँगा ? बलरामने कहा :-- “ आप इस संकोचको हृदयसे निकाल दीजिये । सञ्जन पुरुष अपने हृदयमें सदा उपकारको ही धारण करते हैं और अपकारको कुस्वमकी भाँति भुला दिया करते हैं । पाण्डव भी सज्जन हैं । आपने उन पर अनेक उपकार किये हैं । इसलिये इस विपत्ति कालमें वे अपकार न कर, सत्कार ही करेंगे । मेरा दृढ़ विश्वास है कि वे कभी अकृतज्ञ न होंगे, इसलिये आप लज्जा - संकोच छोड़ कर उन्हींके यहाँ चलना स्थिर कीजिये ।" कृष्णने व्यथित हृदयसे बलरामका यह प्रस्ताव 1
SR No.010428
Book TitleNeminath Charitra
Original Sutra AuthorN/A
AuthorKashinath Jain
PublisherKashinath Jain Calcutta
Publication Year1956
Total Pages433
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size11 MB
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