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-उन्नीसवाँ परिच्छेद
८१५ था, इसलिये केतुमंजरीके यह वचन सुनते ही, उसने एक रस्सीसे उसको अच्छी तरह पीट दिया। इससे केतुमंजरीको बड़ाही दुःख हुआ और उसने रोते कलपते अपने पिताके निकट जाकर इसकी शिकायत की। इसपर पिताने कहा :-'वेटी! मैं क्या करूँ ? तूने तो स्वयं कहा था, कि मुझे दासी होना पसन्द है, रानी होना नहीं।"
केतुमंजरीने कहा:-पिताजी ! मेरा अपराध क्षमा कीजिये। मैं अब रानी होना पसन्द करती हूँ। मुझे यह दासता न चाहिये।
कृष्णने कहा :--"बेटी! अब मैं क्या कर सकता हूँ ? तुम तो अब वीरके अधिकारमें हो !"
केतुमंजरीने कहा :-"पिताजी! आप सब कुछ कर सकते हैं। जैसे भी हो मुझे इस दुःखसे छुड़ाइये !"
केतुमंजरीकी यह प्रार्थना सुनकर कृष्णको उसपर दया आ गयी। इसलिये उन्होंने बीरको समझाकर, उसे नेमिभगवानके निकट दीक्षा दिलवा दी।
एकवार कृष्ण अपने परिवारके साथ समस्त मुनियों