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छठा परिच्छेद
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अपनी यह अवस्था देखकर सब विद्याधर गिड़गिड़ाने लगे। उन्होंने दीनतापूर्वक कहा :-- "हे स्वामिन् ! हम नहीं जानते कि यह कौन हैं ? हमने इनपर जो कुछ अत्याचार किया है, वह विद्युदंष्ट्रके आप हमारा यह अपराध
आदेशसे ही किया है।
क्षमा कीजिये ।"
धरणेन्द्र ने कहा :- " मैं इन मुनिराज के केवलज्ञानका महोत्सव करने आया हूँ । तुम लोगोंने बड़ा ही बुरा काम किया है । वास्तवमें तुम बड़े पापी हो-बड़े अज्ञानी हो। मैंने तुम्हें जो दण्ड दिया है, वह सर्वथा उचित ही है, किन्तु तुम्हारी विनय - अनुनय सुनकर मुझे फिर तुम पर दया आती है। खैर, तुम्हारी विद्याएँ फिर सिद्ध हो सकेंगी, किन्तु इसके लिये तुम्हें बड़ी चेष्टा करनी पड़ेगी। साथ ही यदि तुमलोग भूलकर भी कभी तीर्थकर, साधु और श्रावकोंसे द्वेष करोगे, तो क्षणमात्रमें तुम्हारी विद्याएँ नष्ट हो जायँगी । पापी विद्युदंष्ट्रका अपराध तो बड़ा ही भयंकर और अक्षम्य है। उसे रोहिणी आदि विद्याएँ किसी भी अवस्थामें सिद्ध न होंगी 6
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