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( १८ )
चात-हाय के पिया मोहे देश बुखालो हिन्द में जी घबरावत है ॥
जिनेन्द्र पूजा ॥
अर्घस्थापना (दोहा) (१)
परम जोति परमातमा परम ज्ञान पवन ॥ बन्दूं परमानन्द मय घट घट अंतर लीन ॥ १ ॥ तुमने हित उपदेश किया जगत उपकार || सो तुम भक्ती और बिनय है सबको स्वीकार ॥ २ ॥ इष्ट वस्तु संसारकी जानी सभी असार ||
व्यर्थ जानके डारहं भगवत चरण मंझार ॥ ३ ॥
जलसे पूजा (२)
स्वामी तू हितंकारी दुख परहारी चर्णों में सीस नमावत हूं ॥ टेक ॥ मलीन बस्तुको उज्जल यह नीर करता है । ' पवित्र करनेका गो जल स्वभाव धरता है । ' हरी न कर्मों की कुछ कालिमा मगर मेरी || 'न आत्माका कोई काम इससे सरता है | सोही जान निरर्थक यह जल तेरे चर्णोंके आगे चढ़ावत हूँ | स्वामी तू हितकारी दुख परहारी चर्णों में सीस नमावतहूं || चन्दन से - पूजा - (३)
तपत बुझाता है चन्दन बदनकी गरमी में || सभी लगाते हैं घिस घिस बदनपे गरमी में |
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