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सकाम दोय भेद आपापर जान जोरे, बाहर कर्म विपाक रे। सुख दुख निरवाधित म्हारे; ते निर्जरा व्यवहार रे । निर्जरा पंच प्रमाद हणी करया रे, वीतराग भावे सूर रे । मिथ्या रजनी कायर वणी रे, भव सरवरकी दूर रे । निर्जरा०
आतम ध्यान सुरग धरोरे, परगुणक करे नाश है, निश्चय निर्जरा ते कही जे, लाभे लीला विलास है। निर्जरा० अष्टम गुणथाने धरोजे, क्षपक श्रेणी गुणखान रे, शुकल ध्यान वण दीयता रे, कर्न ईधन कूनाश रे । निर्जरा० प्रगट विन्दु सागर थया रे, अनतं चतुष्टय धार रे । तेरहवें केवल पामीया रे, प्रकृति पचासी छांड रे। निर्जरा० पच लघु अक्षर मे कहा रे, चेतन रूप प्रकाश रे। हृदय फमल नितहूनम रे, कब पाऊ शिव वास रे ॥
निर्जरा रस लीधा।
लोक भावना
लोक सरूपजाणी करया ममता बुद्धि ने डाल रे। स्वर्ग मध्य पाताल मे, जीव रुल्या अनतं काल रे॥ पाताल नरके दुख सुण्या रे, चिन्ता सू नहीं काम रे । स्वर्गे सुख सुर सम्पत दुख, भरमत चहुठाम रे । लोक० असंख्याता लोक छ अलोक अन्त आकाश रे। ज्ञान अनंतानंत छै एक समय प्रतिभास रे ॥ लोक० द्रव्य अनती लोक छ, खीर नीर ज्यो देख रे। पण सत्ता व्याप नही, निश्चय नय इस लेख रे ॥ लोक० पुरुष आकारा लोक छै षट द्रव्य भरो विचार रे । ज्ञेय रूप सब जानिये, चेतन उपजे सार रे ।। लोक० घट घट अतंर चेतना, सिद्ध अवस्था व्याप रे । निज ज्ञाता निज ज्ञान शुद्ध है, सिद्ध पद आप रे ॥ लोक० लोकां के अतं सिद्ध रमे, अनतं गुरणे अभिराम रे । एक में नेक रहा पिण, अब घणा निज पाम रे।
लोक भावना जानिये ।
• मुलतान दिगम्बर जैन समाज-इतिहास के आलोक मे
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