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___ सहिष्णुता
यद्यपि मुलतान अचल के जैन समाज मे बहुभाग एव प्रमुख ओसवाल लोग ही थे किन्तु उन्हें जातिनद छू भी नही गया था । विविध जातिया एक परिवार की तरह गुथी तथा बाहर से आये किसी भी जाति के व्यक्ति या परिवार को ऐसा अपनाते थे कि वह भी दिगम्बर या मुलतानी जैसा ही हो जाता था। इतना ही नही उनका साधर्मी (प्रेम) श्वेताम्बरो को भी प्राप्त था। रोटी के समान बेटो व्यवहार भी उनके साथ चलता था। इसका परिणाम यह था कि श्वेताम्बर बन्धु अपनी साम्प्रदायिक मान्यताओ मे बधे रह कर भी मूलधर्म (जिनकल्प) को ही उपादेय मानते थे और स्वीकार करते थे कि हमारी मूर्तियां राज-अवस्था की ही हैं । केवली या वीतरागी रूप तो दिगम्बर मतियो का ही है। वही उपादेय एव श्रेष्ठ है।
अग्नि परीक्षा
अन्तरग और बहिरग जिनधर्म के पालन तथा मानने मे लीन मुलतान-अचल - साधमियो को यह कल्पना भी नही थी कि देश के टुकडे होगे और उन्हे अपनी पतृभूमि छोड़कर जाना पडेगा । इस अग्नि परीक्षा की भयानक घडी मे भी मुलतान
गाजखिान के इन जिनमियो को अपनी विपूल सम्पत्ति की इतनी चिन्ता नही थी, जतना कि अपने शास्त्र की थी। देवालय तो जगम नही बनाये जा सकते थे किन्तु ५१ शास्त की मात्रा तो लौकिक सम्पत्ति के लवाश भी नही थी। हा देव-शास्त्र का रुप निश्चित ही अनन्त गणा था। घर-द्वार-धन-धान्यादिक को छोड़कर जाने को
र थ। ये हमारे धर्मवीर आर्य देव-शास्त्र को प्राण देकर भी छोड़ने को तैयार नही । मुलतान अचल के जैनियो ने अन्न-जल का त्याग करके घोषणा करदी कि वे तव हवाई जहाज पर नही चढेगे जब तक उन्हे परे देव-शास्त्रो के साथ जाने की अन
भार व्यवस्था नही की जायेगी । अन्त मे हमारे ये साधर्मी अपनी अग्नि परीक्षा मे सफल हुए तथा अपने देव-शास्त्री के साथ ही भारत आये ।
करणीय
तये
समना
। कायर
जयपुर, दिल्ली, वम्बई आदि मे बसे हमारे ये साधर्मी यद्यपि अपने पुरुषार्थ के फिर सम्पन्न भारतीय बन गये है और इन्होने जितना सम्भव था उतना अपने शासयो के रगरूप मे ढलने का भी प्रयत्न किया है। किन्तु उनकी सादगी, '' साधी वात्सल्य आदि तदवस्थ है तथा इन्होने अपनी मुलतानी पहिचान भी
खा है । इसका ही ये सुफल है कि जयपुर ही नही जहा-जहा ये जाकर बसे है इनके अस्तित्व को मान्यता मिली है। क्योकि देवपूजा, गुस्पास्ति, स्वाध्याय, 'तप और दान इन छहो गहस्थो के नित्य कृत्यो का वे सावधानी से पालन है तथा प्रवासी और स्थानीय सामियो के साथ सौहार्दपूर्ण व्यवहार करते है ।
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मुलतान दिगम्बर जैन समाज-इतिहास के आलोक में