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मैने उनसे उनकी पुरानी प्रथाओ के सम्बन्ध मे जिज्ञासा प्रकट की। तब बोलेपहले हमारे या समाज की आज्ञा के बिना बच्चे न मदिर मे चवर ढोर सकते थे और न स्वय गन्धोदक ले सकते थे। इसके लिए समाज से आज्ञा लेनी पडती थी कि हमारा वालक अब इस योग्य हो गया है, समाज आज्ञा प्रदान करे । कितना बडा सामाजिक अनुगासन था और विनय अविनय का कितना ध्यान था।
वाहर से आने वाले जैनो के लिए यह स्थायी व्यवस्था थी कि नम्बर वार सबके घर बन्धे हुए थे । मन्दिर के मालिक को यह हिदायत थी कि मन्दिर मे जो नवीन व्यक्ति आवे उसे जिस घर का नम्बर हो उसे भोजन के लिए स्वय पहुचा आवे । मै पर्व मे जितने दिन रहा उतने दिन मेरा भोजन उन्ही घरो मे हो सका जिनके नम्बर थे। इसमे वडे छोटे का प्रश्न नही था । आशानन्द रगूराम की दुकान बडी विशाल थी, बडा कारोबार था । सुखानन्दजी, चोथूरामजी, जिनदासमलजी, बिहारीलालजी आदि बुजुर्ग थे। वडा ही सुन्दर सगठन बना हुआ था।
___ वही से मैं डेरागाजीखान गया। लाला कवरभान मुखिया थे । पर्व के बाद एक दिन नगर कीर्तन था । पूरा स्टेज बन्धा हआ साथ-साथ चलता था। भजन और ड्रामा होता जाता था। शराब व जए आदि की बराइया आदि विषय होते थे। जनता की भीड वढती जाती थी और अन्त मे अपने स्थान पर पहुच कर वही भीड जलसे के रूप में बदल जाती थी। वक्ताओ के भाषण होते थे। प्रचार का ऐसा सफल आयोजन मैने कही नही देखा । पजावी प्रदेश, जैनो के सिर्फ 38 घर और यह रग देखकर मै दग रह गया था। मैं आज भी उन सब दृश्यो को नही भूला हूँ । दशलक्षणजी मे जहा जाता ह तो मुलतान और डेरागाजीखान की चर्चा अवश्य करता हू ।
पुराने सब उठ गये, मुलतान और डेरागाजीखान छूट गये । किन्तु दूसरी पीढी में भी धर्म-प्रेम वही है। इसका प्रत्यक्ष उदाहरण है जयपुर के आदर्शनगर मे बना मुलतानवासियो का जैन मन्दिर जिसकी रजत जयन्ती मनाई जा रही है । यह पुरुषार्थी समाज की सफलता का जीता जागता उदाहरण है जिन्हे देश विभाजन के समय अपना सवस्व छोडकर भागना पडा । उन्होने अपने पुरुषार्थ से इस आदर्शनगर को एक आदर्श के रूप में विश्व के सामने रखा है और आदर्शनगर का यह जैन मन्दिर भी एक आदर्श रूप हा है । आशा है मुलतान की दिगम्बर जैन समाज अपने पुरातन आदर्श को जिसकी मैने ऊपर चर्चा की है, नही भूलेगी और उसे ही अपना आदर्श सदा बनाये रखेगी । आचार्यो न ठीक ही कहा है "जो धर्म की रक्षा करता है, धर्म उसकी रक्षा करता है।"
• मुलतान दिगम्बर जैन समाज-इतिहास के आलोक मे
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