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उपसंहार
का दिवाला निकल गया, सहृदयता और प्रेम ईर्ष्या और द्वेष मे परिणत हो गया, विदेशी संस्कृति, विदेशी आचार-विचार, विदेशी वेश-भूषा यहाँ तक कि विदेशी भाषा का अधिपतित्व हमारे दिल और दिमागों पर छा गया। फल यह हुआ कि हमारा भारतीय समाज दिन पर दिन अधःपतन की ओर अग्रसर होता गया। आज हमारे समाज में कितनी विषमता फैल गई है ! जो भारत भूमि शस्य-श्यामला कही जाती थी, जो धन-धान्य से सदा परिपूर्ण रहती थी और जहाँ भिक्षुक लोग दरवाजे से खाली हाथ लौटकर नहीं जाते थे, वहाँ आज अन्न और वस्त्र पैदा करनेवाले किसान और मजदूरो को भरपेट खाने को नसीब नहीं होता, उन की मॉ-बहनों को तन ढकने को कपडा मयस्सर नही होता ! मशीनों और कल-कारखानों के इस युग में भारतीय जनता का जितना शोषण हुअा उतना भारत के इतिहास में आज तक कभी नहीं हुआ ! दिन भर जी-तोड परिश्रम करने के बाद भी हमारे मजदूर जो आज भूखे-नगे रहते है, क्षय, दमा आदि भीषण रोगों से पीडित रहते है, उस का एकमात्र कारण है हमारी समाज की दूषित रचना । एक ओर माल की दर घटाने के लिये माल के जहाज के जहाज़ समुद्र में डुबो दिये जाते है, दूसरी ओर लोग दाने दाने से तरसते है ! आज ऐसी भीषण परिस्थिति हो गई है कि पर्याप्त अन्न और वस्त्र होते हुए भी हम उस का उपभोग नही कर सकते। एक ओर धनिक-कुबेरो के कोष भरते चले जा रहे है और दूसरी ओर प्रजा का शोषण होता चला जा रहा है। 'सोने' के बगाल मे लाखो माई के लाल भूख से तडप तडपकर भर गये, कितनी ही रमणियो ने वस्त्र के अभाव मे लज्जा के कारण आत्महत्या कर डाली और कितनी ही भद्र रमणियों को पेट पालने के निमित्त वेश्यावृत्ति करने के लिये उतारू होना पड़ा, जिस के फलस्वरूप आज बगाल मे काले, गोरे और भूरे रंग के वर्णसकर शिशुप्रो का जन्म हो रहा है ! इन सब का प्रधान कारण है हमारी परतत्रता, हमारी गुटबन्दी, हमारी फूट, हमारी स्वार्थ-लिप्सा और चरित्रबल की हीनता।