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महावीर वर्षमान
जब तपश्चर्या, आत्मदमन और अहिंसा का उपदेश दिया तो वे कहना चाहते थे कि लोग श्रात्म-अनुशासन के महत्त्व को समझें, प्रात्म-नियंत्रण की उपेक्षाकर सुखप्रिय न बनें और दूसरों को अपने समान मानें। इसी प्रकार बुद्ध ने जब ज्ञान का, मध्यममार्ग का और अनात्मा का उपदेश दिया तो उनका कहना था कि लोग ज्ञानपूर्वक आचरण करे, शुष्क क्रियाकाडी अथवा विलासप्रिय न बने, तथा श्रात्मभाव (अहंकार) का पोषणकर अहंवादी न हो जाये । महावीर ने जो अहिसा और अनेकांत का उपदेश दिया. अथवा बुद्ध ने जो चार आर्यसत्य और अष्टाग मार्ग का प्ररूपण किया उसका अभिप्राय यही था कि सर्वप्रथम आत्मशुद्धि करो, अपना आचरण सुधारो, इसी से निर्वाण की प्राप्ति होती है। महावीर लोक-समाज से दूर रहकर अपने आत्मबल से लोगों को प्रभावित करके लोकहित करना चाहते थे जब कि बुद्ध लोगों में हिल-मिलकर उन का कल्याण करते थे; उद्देश्य दोनों का एक था ।
१५ महावीर - निर्वाण और उसके पश्चात्
बारह वर्ष तक कठिन तप करने के पश्चात् महावीर ने तीस वर्ष उपदेशक अवस्था में व्यतीत किये। इस लंबे काल में उन्हों ने दूर दूर तक परिभ्रमण किया और लोगों को अहिंसा और सत्य का उपदेश देकर लोकहित का प्रदर्शन किया । विहार करते करते महावीर मज्झिमपावा पधारे और वहाँ चौमासा व्यतीत करने के लिये हस्तिपाल राजा के पटवारी के दफ़्तर ( रज्जुगसभा) में ठहरे। एक एक करके वर्षाकाल के तीन महीने बीत गये और चौथा महीना लगभग आधा बीतने को आया । कार्त्तिक अमावस्या का प्रातःकाल था; महावीर का यह अन्तिम उपदेश था । उन्होंने अपना अन्तिम समय जानकर उपदेश की अखण्ड धारा चालू रक्खी और पुण्य पापविषयक अनेक उपदेश सुनाये । महावीर के निर्वाण के