________________
२८
महावीर वर्धमान
३९
माया है तो उसे सिद्धि मिलनेवाली नहीं। " प्राचार्य कुन्दकुन्द ने यही कहा है कि वस्त्र त्यागकर भुजायें लटकाकर चाहे कोटि वर्ष तप करो परन्तु अंतरंग शुद्धि के बिना मोक्ष नहीं होता ।" इस से स्पष्ट है कि महावीर ने कोरी नग्नता का समर्थन नहीं किया । वास्तव में जो सरल हो, मुमुक्षु हो, और माया रहित हो उसी को सच्चा मुनि कहा गया है। केशी-गौतम के संवाद में पार्श्वनाथ की परंपरा के अनुयायी केशी ने जब महावीर के शिष्य गौतम से प्रश्न किया कि महावीर का धर्म अचेलक है और पार्श्वनाथ का सचेल, तो फिर दोनों का समन्वय कैसे हो सकता है ? इस पर गौतम ने उत्तर दिया कि है महामुने ! मोक्ष के वास्तविक साधन तो ज्ञान, दर्शन और चारित्र है, लिंग या वेश गौण है; लिंग साध्य की सिद्धि में साधन मात्र है, उसे स्वयं साध्य समझ लेना भूल है ।" वास्तव में इसी तप का आदर्श उपस्थितकर दीर्घ तपस्वी महावीर अपने धर्म की भित्ति खड़े कर सके और आत्म-संयम, आत्म-अनुशासन और आत्म-विजय को इतना उच्च स्थान दे सके । तप और त्याग की उच्च भावना ही मनुष्य को अहिंसा के समीप लाकर संसार की अधिकाधिक शांति में अभिवृद्धि कर सकती है, यही महावीर वर्धमान का प्रदेश था।
अपने उद्देश्य तक पहुँचने मे कितने ही कष्ट क्यों न आये, परन्तु तपस्वी जन अपने मार्ग में सदा अटल रहते है । कोई उन्हें गाली दे या उनकी स्तुति करे तो भी उस में वे समभाव धारण करते हैं । कर्तव्य-पथ पर डटकर खडे रहने से ही मनुष्य कठिन और दुस्सह कठिनाइयों पर जय
२.१.६
भावप्राभृत ४
३९ श्राचारांग १.३.१६
उत्तराध्ययन २३.२६-३३
३८