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तत्कालीन परिस्थिति और महावीर की दीक्षा
शूद्रदर्शन - जन्य आँखो की अपवित्रता दूर करने के लिए उन्हे धोना पडता है। महावीर ने देखा कि सर्वत्र अज्ञान ही अज्ञान फैला हुआ है और लोग अपनी विषयवासना तृप्त करने के लिये, अपने सुख के लिये दूसरे
की हिंसा कर रहे हैं, उन्हें कष्ट पहुँचा रहे हैं, जिस से सब जगह दुख ही दुख फैला हुआ है। यह देखकर महावीर का कोमल हृदय द्रवित हो उठा, उनके विचारों में उथल-पुथल मच गई और उन्होने दृढ निश्चय किया कि कुछ भी हो मुझे जग का कल्याण करना हैं, उस में सुख, शान्ति और समता भाव फैलाना है, तथा उस के लिये सर्वप्रथम आत्मबल प्राप्त करना है ।
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महावीर ने एक से एक सुन्दर नाक के श्वास से उड जानेवाले, नवनीत के समान कोमल वस्त्रो का त्याग किया, हार, अर्धहार, कटिसूत्र, कुडल आदि श्राभरणो को उतारकर फेंक दिया, एक से एक स्वादिष्ट भोजन, पान आदि को सदा के लिये तिलाजलि दे दी, अपने मित्र छोडे, बघु छोड़े, विपुल धन, सुवर्ण, रत्न, मणि, मुक्ता आदि सब कुछ छोड़ा, और स्वजन सबधियो की अनुमतिपूर्वक क्षत्रिय - कुण्डग्राम के बाहर ज्ञातृषण्ड नामक उद्यान मे जाकर पचमुष्टि से केशों का लोचकर श्रमणत्व की दीक्षा ग्रहण की। महावीर ने निश्चय किया कि चाहे कितनी ही विघ्नबाधाये क्यो न आये तथा कितने ही घोर उपसर्ग और सकट क्यो न उपस्थित हो, परन्तु मैं सब का धीरतापूर्वक सामना करता हुआ सब को शान्तभाव से, क्षमाभाव से सहन करूँगा, और अपने नियम में अटल रहूँगा -- अपने निश्चय से न डिगूँगा ।
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चित्तसंभूत जातक ( नं० ४९८ ), पृ० १६१
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