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________________ प्रास्ताविक निवेदन सन् १९४२ के अगस्त आन्दोलन में जेल से लौटने के पश्चात् मेरे विचारों मे काफ़ी क्रान्ति हो चुकी थी। मैंने सोचा कि महावीर के विषय मे लिखने का इस से बढ़कर और कौनसा सुअवसर होगा। परन्तु मेरी पी-एच० डी० की थीसिस का काम बीच में पड़ा हुआ था। मित्रों के आग्रह पर मैने उसे पूर्ण करने की ठानी। ज्यों-त्यों करके इस महाभारत कार्य को मैं गत दिसंबर मे समाप्त कर सका, उसी समय से मैं इस कार्य को हाथ में लेने का विचार कर रहा था। गत महीने में मुझे अपने कुछ मित्रों के साथ बंबई के मिलमजदूरों की चाले (घर) देखने का मौका मिला, जिस से मुझे इस पुस्तक को लिखने की विशेष प्रेरणा मिली। दुर्भाग्य से जितनी सामग्री बुद्ध के विषय में उपलब्ध होती है उतनी महावीर के विषय मे नही होती, जिसका मुख्य कारण है सम्राट मौर्य चन्द्रगुप्त के समय पाटलिपुत्र (पटना) मे दुर्भिक्ष पड़ने के कारण अधिकांश जैन साहित्य का विच्छेद। महावीर के जीवन-विषयक सामग्री दिगम्बर ग्रन्थों मे नहीं के बराबर है, तथा श्वेताम्बरों के प्राचारांग आदि प्राचीन ग्रंथों में जो कुछ है वह बहुत अल्प है। इस पुस्तक मे श्वेतांबर और दिगम्बर दोनों सम्प्रदायों के ग्रन्थों का निष्पक्ष रूप से उपयोग किया गया है, और यह ध्यान रक्खा गया है कि यह पुस्तक दोनों सम्प्रदायों के लिये उपयोगी हो। महावीर के जीवन की अलौकिक घटनाओं को छोड़ दिया गया है। कुछ लोगों का मानना है कि महावीर का धर्म आत्मप्रधान धर्म था तथा उनकी अहिंसा वैयक्तिक अहिंसा थी, अतएव उनके धर्म को लौकिक या सामूहिक रूप नहीं दिया जा सकता, परन्तु मैं इस बात से सहमत नहीं हूँ। बुद्ध की तरह महावीर ने भी संघ की स्थापना की थी और उन्हों ने अपने
SR No.010418
Book TitleMahavira Vardhaman
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJagdishchandra Jain
PublisherVishvavani Karyalaya Ilahabad
Publication Year
Total Pages75
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size2 MB
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