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म. वी.
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सातवां अधिकार ॥ ७ ॥
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कृत्स्नविघ्नौघहंतारं त्रिजगन्नाथसेवितम् ।
वंदे श्रीपार्श्वशं पंचकल्याणनायकम् ॥ १ ॥ भावार्थ-सव विनों के नाश करनेवाले तीन लोकके स्वामियोंकर सेवा किये गये और पंचकल्याणके स्वामी ऐसे श्री पार्श्वनाथ तीर्थकरको मैं नमस्कार करता हूं । अथानंतर इसी भरतक्षेत्रमें विदेह नामका बड़ा भारी देश है वह श्रेष्ठधर्म और मुनीश्वरोंके संघसे विदेहक्षेत्र के समान शोभायमान मालूम पड़ता है। वहांके कितने ही मुनि शुद्ध चारित्र से देहरहित मोक्षको प्राप्त होते हैं इसीलिये उसका नाम गुणको लिये हुए सार्थक है । कोई जीव सोलहकारणादि भावनाओंके विचारसे श्रेष्ठ तीर्थंकर नामकर्मका बंध करते हैं, कोई पंचोत्तर नामके अहमिंद्रस्थानमें गमन करते हैं । कोई जीव भक्तिपूर्वक उत्तम पात्रदान करनेके फलसे भोगभूमिमें जन्म लेते हैं और कोई भव्यजीव भगवान् की पूजा के फलसे स्वर्गमें इंद्र पदवी पाते हैं ।
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जिस देशमें अकेवली भगवानोंकी मोक्षभूमि जगह जगहपर देखने में आती हैं जिनभूमियोंको मनुष्य देव विद्याधर नमस्कार करते हैं। जिस देशके वनपर्वत वगैरः
पु. भा.
अ. ७
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