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म. वी.
॥४६॥
स्वर्ग मोक्षका साधक है । इत्यादि शुभभावों से अव इस प्रभातकालमें ये सब बुद्धिमान् लोक अपने हित के लिये धर्मध्यानमें प्रवर्त हो रहे हैं ।
जिस तरह जिनदेवरूपी सूर्यके उदयसे मिथ्यामत आगिया ( रातमें चमकनेवाले 1 कीडे ) की तरह कांतिरहित होजाते हैं उसी तरह सूर्यके उदय होनेसे चंद्रमा और तारे प्रभारहित होगये हैं । जैसे अर्हतरूपी सूर्यके उदयसे कुलिंगी ( भेष धारी) रूप चोरै भाग जाते हैं उसी तरह सूर्यके उदय होनेसे भयभीत चोर भाग गये हैं । जैसे जिनरूपी सूर्य दिव्य ध्वनिरूप किरणोंसे अज्ञानरूपी अंधकारको नाश कर देते हैं उसी तरह इस सूर्यने भी अपनी किरणोंसे रातके अंधकारको नाश कर दिया है।
जैसे तीर्थनाथ शुद्धज्ञानरूपी किरणोंसे श्रेष्ठ मार्ग और पदार्थों का स्वरूप दर्शाते हैं उसी तरह यह सूर्य भी अपनी किरणोंसे सब पदार्थको प्रकाश कर रहा है । जैसे अर्हत वचनरूपी किरणोंसे भव्यजीवों के मनरूपी कमल निश्रयकर प्रसन्न होजाते हैं उसी तरह सूर्य की किरणोंसे कमल खिल रहे हैं । जैसे अर्हतके दिव्यवचनरूपी किरणों से मिथ्यातियों के हृदयरूपी कुमुद ( चंद्रमासे खिलनेवाले ) शीघ्र ही मलिन हो जाते हैं उसीतरह सूर्य की किरणोंसे ये कुमुद मलिन होरहे हैं । हे देवी अत्र प्रात:काल ( तड़का ) होगया जो कि सत्रको सुख देनेवाला हैं, सब संपदाओंका साधनेवाला है
पु. भा.
अ. ७
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