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भगवान महावीर
उसके विकराल रूपको देखकर दूसरे राजकुमार भयविह्वल हो गये और उसी दशामें वृक्षों परसे गिरकर अथवा कूदकर अपने अपने घरको भाग गये । परन्तु आपके हृदय में जरा भी भयका संचार नहीं हुआ - आप बिल्कुल निर्भयचित्त होकर उस काले नागसे ही कीड़ा करने लगे और आपने उस पर सवार होकर अपने बल तथा पराक्रम से उसे खूब ही घुमाया, फिराया तथा निर्मद कर दिया । उसी वक्त से आप लोकमें 'महावीर' नाम से प्रसिद्ध हुए ।
प्रायः तीस वर्षकी अवस्था हो जाने पर महावीर संसार - देहभागों से पूर्णतया विरक्त हो गये, उन्हें अपने आत्मोत्कर्षको साधने और अपना अन्तिम ध्येय प्राप्त करने की ही नहीं किन्तु संसार के जीवोंको, जो उस समय पीड़ित पतित तथा मार्गच्युत हो रहे थे, सन्मार्गमें लगाने और उनकी सच्ची सेवा करनेकी एक विशेष लगन लगी- दीन दुखियोंको पुकार उनके हृदय में घर कर गई— और इसलिये उन्होंने, अब और अधिक समय तक गृहवासको उचित न समझकर, जंगलका रास्ता लिया, संपूर्ण राज्यवैभवको ठुकरा दिया और इन्द्रिय-सुखों से मुख मोड़कर मंगसिरवादि १०मी का 'ज्ञातखंड' नामक बनमें जिनदीक्षा धारण करली । दीक्षा के समय आपने संपूर्ण परिग्रहका त्याग करके आकिंचन्य (अपरिग्रह ) व्रत ग्रहण किया, अपने शरीरपर से वस्त्राभूषणों को उतारकर फेंक दिया और केशोंको क्लेशसमान समझते हुए उनका भी लौंच कर डाला । अब आप देहसे भी निर्ममत्व होकर नग्न रहते थे, सिंहकी तरह निर्भय होकर जंगल पहाड़ों में विचरते थे और दिन-रात तपश्चरण ही तपश्चरण किया करते थे 1
विशेष- सिद्धि और विशेष-लोकसेवा के लिये विशेष ही तपश्चरणकी जरूरत होती है-तपश्चरण ही रोम-रोम में रमे हुए आन्तरिक मलको छाँटकर आत्माको शुद्ध, साफ़, समर्थ और कार्यक्षम बनाता है । इसीलिये महावीरको बारह वर्ष तक घोर