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सर्वोदयतीर्थके कुछ मूलसूत्र ४० प्रत्येक वस्तुमें अनेकानेक धर्म होते हैं, जो पारस्परिक अपेक्षाको लिये हुए अविरोध-रूपसे रहते हैं और इसीसे वस्तुका वस्तुत्व बना रहता है।
४१ वस्तुके किसी एक धर्मको निरपेक्षरूपसे लेकर उसी एक धर्मरूप जो वस्तुको समझना तथा प्रतिपादन करना है वह एकान्त अथवा एकान्तवाद है। इसीको निरपेक्ष-नयवाद भी कहते हैं।
४२ अनेकान्तवाद इसके विपरीत है। वह वस्तुके किसी एक धर्मका प्रतिवादन करता हुआ भी दूसरे धर्मोको छोड़ता नहीं, सदा सापेक्ष रहता है और इसीसे उसे 'स्याद्वाद' अथवा 'सापेक्षनयवाद' भी कहते हैं।
४३ जो निरपेक्षनयवाद हैं वे सब मिध्यादर्शन हैं और जो सापेक्षनयवाद हैं वे सब सम्यग्दर्शन हैं।
४४ निरपेक्षनय परके विरोधकी दृष्टिको अपनाये हुए स्वपर-वैरी होते हैं, इसीसे जगतमें अशान्तिके कारण हैं।
४५ सापेक्षनय परके विरोधको न अपनाकर समन्वयकी दृष्टिको लिये हुए स्व-परोपकारी होते हैं, इसीसे जगतमें शान्तिसुखके कारण हैं।
४६ दृष्ट और इष्टका विरोधी न होनेके कारण स्याद्वाद निर्दोषवाद है, जबकि एकान्तवाद दोनोंके विरोधको लिये हुए होनेसे निर्दोषवाद नहीं है। __ ४७ 'स्यात्' शब्द सर्वथाके नियमका त्यागी, यथादृष्टको अपेक्षा रखनेवाला, विरोधी धर्मका गौणरूपसे द्योतनकर्ता और परस्पर-प्रतियोगी वस्तुके अंगरूप धर्मोकी संधिका विधाता है ।
४८ जो प्रतियोगीसे सर्वथा रहित है वह आत्महीन होता है और अपने स्वरूपका प्रतिष्ठापक नहीं हो सकता।
४६ इस तरह सत्-असत्, नित्य-अनित्य, एक, अनेक, शुभ-अशुभ, लोक-परलोक, बन्ध-मोक्ष, द्रव्य-पर्याय, सामान्य