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महावीरका सर्वोदयतीर्थ में कर्मानुसार नाना प्रकारके रूप धारण करके परिभ्रमण करना तथा दुःख उठाना होता है।
१० जब योग्य-साधनोंके बलपर विभावपरिणति मिट जाती है, आत्मामें कर्ममलका सम्बन्ध नहीं रहता और उसका निजस्वभाव पूर्णतया विकसित हो जाता है तब वह जीवात्मा संसारपरिभ्रमणसे छूट कर मुक्तिको प्राप्त होता है और मुक्त, सिद्ध अथवा परमात्मा कहलाता है।
११ प्रात्माकी पूर्णविकसित एवं परम-विशुद्ध अवस्थाके अतिरिक्त परमात्मा या ईश्वर नामकी कोई जुदी वस्तु नहीं है।
१२ परमात्माकी दो अवस्थाएँ हैं, एक जीवन्मुक्त और दूसरी विदेहमुक्त । - १३ जीवन्मुक्तावस्थामें शरीरका सम्बन्ध शेष रहता है, जब कि विदेहमुक्तावस्थामें कोई भी प्रकारके शरीरका सम्बन्ध अवशिष्ट नहीं रहता।
१४ संसारी जीवोंके त्रस और स्थावर ये मुख्य दो भेद हैं, जिनके उत्तरोत्तर भेद अनेकानेक हैं।
१५ एकमात्र स्पर्शन इन्द्रियके धारक जीव 'स्थावर' और रसनादि इन्द्रियों तथा मनके धारक जीव 'स' कहलाते हैं। .
१६ जीवोंके संसारी मुक्तादि ये सब भेद पर्यायदृष्टिसे है। इसी दृष्टि से उन्हें अविकसित, अल्पविकसित, बहुविकसित और पूर्णविकसित ऐसे चार भागोंमें भी बांटा जा सकता है।
१७ जो जीव अधिकाधिक विकसित हैं वे स्वरूपसे ही उनके पूज्य एवं आराध्य हैं जो अविकसित या अल्पविकसित हैं; क्योंकि आत्म-गुणोंका विकास सबके लिये इष्ट है।
१८ संसारी जीवोंका हित इसीमें है कि वे अपनी राग-द्वेषकाम-क्रोधादिरूप विभावपरिणतिको छोड़कर स्वभावमें स्थिर होने रूप सिद्धिको प्राप्त करनेका यत्न करें।