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महावीरका सर्वोदयतीर्थ इन सब वाक्योंका आशय क्रमसे इस प्रकार है:.. (१) 'ब्राह्मण,क्षत्रिय,वैश्य ये तीनों वर्ण (श्राम तौरपर) मुनिदीक्षाके योग्य हैं और चौथा शूद्र वर्ण विधिके द्वारा दीक्षाके योग्य है। (वास्तवमें) मन, वचन, तथा कायसे किये जाने वाले धर्मका अनुष्ठान करनेके लिये सभी जीव अधिकारी हैं । (यशस्तिलक)
(२) 'जिनेन्द्रका यह धर्म प्रायः ऊँच और नीच दोनों ही प्रकारके मनुष्योंके आश्रित है । एक स्तम्भके आधारपर जैसे मन्दिर-मकान नहीं ठहरता उसी प्रकार ऊँच-नीच से किसी एक ही प्रकारके मनुष्यसमूहके आधार पर धर्म ठहरा हुआ नहीं हैवास्तवमें धर्म धार्मिकोंके आश्रित होता है, भले ही उनमें ज्ञान, धन, मान-प्रतिष्ठा, कुल-जाति, आज्ञा-ऐश्वर्य, शरीर, बल, उत्पत्तिस्थान और आचार-विचारादिकी दृष्टिसे कोई ऊँचा और कोई नीचा हो ।' (यशस्तिलक) ।
(३) 'मद्य-मांसादिके त्यागरूप प्राचारकी निर्दोषता, गृहपात्रादिको पवित्रता और नित्यस्नानादिके द्वारा शरीरकी शुद्धि, ये तीनों प्रवृत्तियां (विधियां) शूद्रों को भी देव, द्विजाति और तपस्वियों(मुनियों)के परिकोंके योग्य बनाती हैं । (नीतिवाक्यामृत)
(४) 'आसन और बर्तन आदि उपकरण जिसके शुद्ध हों, मद्यमांसादिके त्यागसे जिसका आचरण पवित्र हो और नित्य स्नानादिके द्वारा जिसका शरीर शुद्ध रहता हो, ऐसा शूद्र भी ब्राह्मणादिक वर्णों के समान धर्मकापालन करनेके योग्य है। क्योंकि जातिसे हीन आत्मा भी कालादिक लब्धिको पाकर धर्मका अधिकारी होता है।' (सागारधर्मामृत)
(५) 'इस (श्रावक) धर्मका जो कोई भी आचरण-पालन करता है, चाहे वह ब्राह्मण हो या शूद्र, वह श्रावक है। भावकके सिरपर और क्या कोई मणि होता है ? जिससे उसकी पहिचान की जा सके।' (सावयधम्मदोहा)