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महावीरका सर्वोदयतीर्थ
ही मिथ्या होते हैं; जैसा कि स्वामी समन्तभद्र प्रणीत देवागमके निम्न वाक्यसे प्रकट है:
मिथ्या-समूहो मिथ्याचेच मिथ्यैकान्तताऽस्ति नः । निरपेक्षा नया मिथ्या सापेक्षा वस्तु तेऽर्थकृत् ॥
महावीर जिनके सर्वधर्मसमन्वयकारक उदार शासनमें सत्असत् तथा नित्य-क्षणिकादि रूप वे सब नय-धर्म जो निरपेक्षरूपमें अलग-अलग रहकर तत्त्वका रूप धारण किये हुए स्व-परघातक होते हैं वे ही सब सापेक्ष (विरोध) रूपमें मिलकर तत्वका रूप धारण किये हुए स्व-पर- उपकारी बने हुए हैं तथा श्रश्रय पाकर बन जाते हैं और इसलिये स्वामी समन्तभद्रने युक्त्यनुशासन की उक्त ( ६१ वीं) कारिका में वीरशासनको जो सर्वधर्मवान् सर्व दुःखप्रणाशक और सर्वोदयतीर्थ बतलाया है वह बिल्कुल ठीक तथा उसकी प्रकृतिके सर्वथा अनुकूल है। महावीरका शासन अनेकान्त के प्रभावसे सकल दुनेयों ( परस्पर निरपेक्ष नवो) अथवा मिथ्यादर्शनोंका अन्त (निरसम) करनेवाला है और ये दुर्नय अथवा सर्वथा एकान्तवादरूप मिथ्यादर्शन ही संसारमें अनेक शारीरिक तथा मानसिक दुःखरूप आपदाओंके कारण होते हैं । अतः जो लोग भगवान महावीरके शासनका— उनके धर्म तीर्थका - सचमुच श्राश्रय लेते हैं- उसे ठीक तौर पर अथवा पूर्णतया अपनाते हैं--उनके मिथ्यादर्शनादि दूर होकर समस्त दुःख यथासाध्य मिट जाते हैं । और वे इस धर्मके प्रसादसे अपना पूर्ण अभ्युदय - उत्कर्ष एवं विकास - तक सिद्ध करने में समर्थ जाते हैं ।
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* य एव नित्य-क्षणिकादयो नया मिथाऽनपेक्षाः स्व-परप्रणाशिनः । त एव तत्त्वं विमलस्य ते मुनेः परस्परेक्षाः स्व-परोपकारिणः ॥
-स्वयम्भूस्तोत्र