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भगवान महावीर अथवा उनका पूर्णरूपसे आविर्भाव कर लिया और आप अनुपम शुद्धि, शक्ति तथा शान्तिको पराकाष्टाको पहुँच गये, अथवा यों कहिये कि आपको स्वात्मोपलब्धिरूप 'सिद्धि' की प्राप्ति हो गई, तब आपने सब प्रकारसे समर्थ होकर ब्रह्मपथका नेतृत्व ग्रहण किया और संसारी जीवोंको सन्मार्गका उपदेश देने के लिये उन्हें उनकी भूल सुझाने, बन्धनमुक्त करने, ऊपर उठाने और उनके दुःख मिटानेके लिये-अपना विहार प्रारम्भ किया। दूसरे शब्दोंमें कहना चाहिये कि लोकहित साधनाका जो अमाधारण विचार
आपका वर्षांमे चल रहा था और जिसका गहरा संस्कार जन्मजन्मान्तरोंमे आपके आत्मामें पड़ा हुआ था वह अब सम्पूर्ण रुकावटोंके दूर हो जाने पर स्वतः कार्य में परिणत हो गया।
विहार करते हुए आप जिस स्थान पर पहुँचते थे और वहाँ आपके उपदेशके लिए जो महती सभा जुड़ती थी और जिस जैनसाहित्यमें 'समवसरण' नामसे उल्लेखित किया गया है उसकी एक खास विशेषता यह होती थी कि उसका द्वार सबके लिये मुक्त रहता था, कोई किसीके प्रवेशमें बाधक नहीं होता था-पशुपक्षी नक भी आकृष्ट होकर वहाँ पहुँच जाते थे, जाति-पांनि छूनाछूत और ऊँचनीचका उसमें कोई भेद नहीं था, सब मनुष्य एक ही मनुष्य जातिमें परिगणित होते थे, और उक्त प्रकारके भेदभावको भुलाकर आपसमें प्रेमके साथ रल-मिलकर बैठते और धमश्रवण करते थेमानों सब एक ही पिताकी सन्तान हो। इस आदशसे समवसरणमें भगवान महावीरकी समता और उदारता मूर्तिमती नजर आती थी और वे लोग तो उसमें प्रवेश पाकर बेहद सन्तुष्ट होते थे जो समाजके अत्याचारोंसे पीड़ित थे, जिन्हें कभी धर्मश्रवणका, शास्त्रोंके अध्ययनका, अपने विकासका और उच्चसंस्कृतिको प्राप्त करनेका अवसर ही नहीं मिलता था अथवा जो पात्र होते हुए भी उसके अधिकारी ही नहीं समझ जाते थे। इसके सिवाय, समव