SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 72
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ : ५४ . और अत्यन्त पुष्ट था और ऐसे जातक अन्त समय तक अपने शारीरिक वल से हीन नही होते और उनके यश कीति की पताका विश्व मे सदा-सर्वदा फहराती ही रहती है। राहु और गुरु कह रहे हैं कि हम सप्तम स्थान मे स्थित हैं। पृथकोत्पादक कारण बनाना हमारा स्वभाव हो गया है अतएव हम स्त्री-सुख से जातक को पृथक रखेगे और हम पर शनि की १० वी दृष्टि है अत वन खण्डो की पद यात्रायें करायेंगे। निर्जन वीहड स्थानो मे वास करायेगे । सूर्य और बुध का हम पर केन्द्रीय शासन है अत वन खण्डो और निर्जन स्थानो मे वास करते हये भी आत्म-ज्ञान और आत्म-दर्शन कराने की हमारी प्रतिज्ञाये हैं। राह, गुरु की चन्द्र, कर्क राशि मे होने से कह रहे हैं कि चन्द्र मन का स्वामी है अत हम अपनी इच्छाओ की पूर्ति हेतु परिवर्तन लाकर मन को एकाग्र करके आत्म-दर्शन कराते हुये जनता के मन पर भी ऐसी अमिट छाप अकित करेगे जिससे प्राणिमात्र युगो-युगो तक याद करता रहे और जातक (भगवान महावीर) के चरण कमलो मे नत मस्तक होता रहे। नवमे स्थान मे चन्द्र कन्या राशि के अन्तर्गत है। नौवाँ स्थान धर्म तथा भाग्य स्थान है। पचम से पचम होने से विद्या से परमोत्कृष्ट विद्या की ओर बढने का और अपनी सम्पूर्ण कलाओं से भाग्य स्थान मे स्थित होकर भाग्योन्नति कराने का सकेत दे रहा है । नौवे स्थान से भी नौवाँ स्थान पचम स्थान होता है। वह सकल्प तो प्रथम ही शुक्र जातक को परम सौभाग्यशालीमहाज्ञानी एव उच्च कोटि का धर्म धुरन्धर बनाने के लिये दृढ निश्चय कर चुका है। चन्द्र मन का स्वामी है-चतुर्थ स्थान का कर्ता है। ऐसे चन्द्र को राहु और गुरु ने अपनी भावनायें समर्पित करके मन मे त्याग और पृथकता, एकान्तवास, धर्म के मर्म की सच्ची
SR No.010408
Book TitleMahavira Chitra Shataka
Original Sutra AuthorN/A
AuthorKamalkumar Shastri, Fulchand
PublisherBhikamsen Ratanlal Jain
Publication Year
Total Pages321
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size11 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy