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१३४ नन्द नाम युवराज हुआ वह, शुभ सम्यक्त्वी श्रावक । 'प्रोष्ठिल' मुनि से दीक्षा धारी, तज विपयों की पावक ।।
अर्हत् केवली पाद-मूल मे, भाई भावनाएँ जो पुण्य-प्रकृति का, सर्व
सोलह कारण । श्रेष्ठ है साधन ।।
तीर्थड्रर पद की महिमा को, गा न सके जब गणधर । सरपति-सरस्वती फणपति भी, पूजे जिनको हरिहर ।।
१३७ ऐसी पुण्य प्रकृति का वन्धन, करके काया त्यागी । स्वर्ग षोडसम् अच्युत मे, वे इन्द्र हुये वडभागी॥
निरत तत्त्व चर्चा मे रहकर, आयु पूर्ण होने पर । 'महावीर श्री' सिद्धारथ सुत, आये त्रिशला के उर ॥
त्रिशलानन्दन का गर्भावतरण
१३६ अढाई हजार वर्ष पहिले जो, आध्यात्मिक सत्क्रान्ति हुई थी। परम अहिंसक 'महावीर श्री' द्वारा जग मे शान्ति हुई थी।
१४० प्रियाकारिणी 'श्री-सिद्धारथ' जिनके जननी और जनक थे। वैशाली गणतंत्र राज्य के, वे न्यायी अनुपम शासक थे ।