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अव अपनी सम्यक दष्टि करो, अपने स्वरूप को पहिचानो। त्रैलोक्य धनी तुम 'महावीर', यह दिव्य दृष्टि द्वारा जानो।
११४ मिथ्यात्व सरीखा पाप नही, सम्यक्त्व सरीखा धर्म नही । शोभा तुम को दे सकता है, इस हिसा का दुष्कर्म नही ।।
श्री ऋषभदेव के युग से ले,भव-भव मिथ्यात्व रचा तुमने । पाखण्डवाद को फैला कर, वस आत्म वचना की तुमने ॥
अव सम्यक् दर्शन धारण कर, श्रावक के व्रत स्वीकार करो। हे मृगपति ! पशु निर्दोपो का, मत आगे अव सहार करो।
११७ . सम्यकदर्शन सा सुखकारी, तीनो लोको तीनो कालो । मिल सकता कोई धर्म नही, सुन लो हे भटके जग वालो।।
मुनियो के उपदेशामृत सुन, आँखो से आँसू टपक पड़े। प्रायश्चित पापो का करके, मृगपति चरणो मे लुढक पडे ।
मुनि वचनो पर श्रद्धा करके, आत्मा का ज्ञान विवेक जगा । सम्यक् दृष्टी के दर्शन से लो, युग-युग का मिथ्यात्व भगा ।।
१२० अव उदासीन श्रावक सा रह, वह अपना समय बिताता था । अपने भव-भव के कृत कर्मों पर, वार बार पछताता था ।