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इसी विश्वनन्दी के थे, वैसाखभूति सज्जन पितृव्य ।। उसका सुत वैसाखनन्द था, भाई चचेरा घोर अभव्य ॥
विश्वभूति मुनि हुये अंत., बैसाखभूति सरक्षक थे। अल्पायुष्क विश्वनन्दी के, वे न्यायी अभिभावक थे।
उद्धत हो वैसाखनन्द ने, उपवन पर अधिकार किया । वृक्ष उखाड़ विश्वनन्दी ने, उस पर अतः प्रहार किया।
वच कर भागा चढा खभ पर, वह बैसाखनन्द भयभीत । तोड़ा उसे विश्वनन्दी ने, हुई साथ ही आत्म-प्रतीत ।।
८८ विश्वनन्दी वैसाखभूति ने, नग्न दिगम्बर धारा भेष । कठिन तपस्याओ के कारण, काया जर्जर हुई विशेष ॥
८६ आहारार्थ एक दिन निकले, विश्वनन्दि मुनि मथुरा ओर । आकार एक बैल ने तब ही, उन्हे गिराया देकर जोर ॥
६० राजमहल की छत पर से, बैसाखनन्द ने देखा दृश्य । अट्टहास उपहास सहित बोला, व्यगोक्तियाँ अवश्य ।।
मुनि निन्दा के घोर पाप से, पाया उसने सप्तम नर्क । मंद कषायी विश्वनन्दि मुनि, ने भी पाया दशवां स्वर्ग ॥