________________
२८ चूं कि द्रव्य लिङ्गी मुनि थे वे, अतः धर्म से भ्रष्ट हुये । भूख-प्यास से व्याकुल होकर, जल-फल प्रति आकृष्ट हुये ।।
२६ 'भरत' चक्रवर्ती के भय से, न नागरिक बने नहीं । आदीश्वर सम रत्नत्रय के, भाव-लिङ्ग मे सने नही।
अतः वनस्थित देवराज ने, उन सब को यो किया सचेत । वेष दिगम्बर धारण करके, क्यो पाखडी बने अचेत ।।
इनमे से कुछ राजा गण तो, उद्धोधन को प्राप्त हुये। किन्तु शेष दुर्गति अनुसारी, मिथ्यामति में व्याप्त हुये ।।
३२ अन्तिम तीर्थङ्कर होगा, 'मारीचि'-दिव्यध्वनि में आया । जिसको सुनकर स्वच्छन्दी, ने अपनापन ही बिसराया ।।
३३ होनहार अनुसार बना वह, मिथ्यामत का नेता था । परिव्राजक का वेष धार, उपदेश विपर्यय देता था।
३४ मैं भी श्री जिन आदिनाथ सा, जगद्गुरू कहलाऊँगा । उन जैसा ही मैं भी अपना, पथ अलग अपनाऊँगा ।।
३५ मिथ्यापन की यही मान्यता, भव-भव हमे रुलाती है । सम्यग्दर्शन के अभाव मे, स्वर्ग-नरक दिखलाती है।