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जीवन-चक्र
इस जगती का रग-मंच, ऐसा अपूर्व संगम-स्थल है । जहाँ विविधताओ का अभिनय, होता ही रहता प्रति पल है ।
चिर अनादि से जीव अनन्तानत, स्वाँग धर भटक रहे है । आतम के अवलम्ब विना ही, पर्यायो मे अटक रहे हैं।
ऐसे ही संसारी जीवो मे, हम सब की है निजात्मा । जो अपने विस्मरण मरण से, खुद का ही कर रही खात्मा ॥
महावीर की भी निजात्मा, हम जैसी ही ससारी थी । युग-युगान्तरो आत्म-ज्ञान की, नही कोई भी तैय्यारी थी।
लेकिन जिस क्षण खुद को जाना, माना पौरुष को पहिचाना । कर्मठ सम्यक्त्वी ने तत्क्षण, कर्म-शत्रुओ से रण ठाना ॥
और अन्ततः विभव-विभावो, का अभाव कर मुक्त हुये वे । भव-भव की पर्यायें तज, स्वाभाविकता से युक्त हुये वे॥
भगवान जन्मते नही किन्तु, पौरुष से बनते आये हैं। सम्यग्दर्शन-ज्ञान-चरित्र की, पथ प्रशस्त करते आये है।