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आजन्म ब्रह्मचर्य की भीष्म प्रतिज्ञा
कुमार वय के व्यतीत होने पर वंडी उमग से अगणित रमणीक भावनाओ को लेकर उस यौवन वय ने युवराज महावीर का सौ-सौ बार स्वागत किया जिसकी रम्य गोदी में बैठकर मनुष्य उन्मत्त हो उठता है, विषय वासनाएँ मानवोचित कर्त्तव्य से उसे दूर फेक देती है । काम का कठोर प्रहार उसे रमणियो का दास वना देता है, किन्तु विश्व विजेता वर्द्धमान को वह यौवन रचमान भी विचलित न कर सका। ससारी प्राणियो के बन्धन मोचन करने वाले वर्द्धमान के दया दिल को यौवन का प्रबल तूफान तनिक भी न हिला सका । जनता चकित थी कि युवराज मे यौवन और ब्रह्मचर्य का यह कैसा विषम सम्मेलन है किन्तु यह कौन जानता था ? कि क्षत्रिय युवराज ने नवयुग प्रवर्तन के लिए मन ही मन आजीवन ब्रह्मचर्य की भीष्म प्रतिज्ञा से अपने को आवद्ध कर लिया है। विचार-विमर्श
राज्य-शासन के कार्यों मे महावीरश्री की न्यायप्रियता और कार्य क्षमता देखकर राजा सिद्धार्थ फूले न समाते थे। वे अपने पुत्र को कुल का भूषण और और न्याय का मूर्तिमान देवता समझते थे । सोचते थे महावीर अपना व अपने वशजो का नाम विश्व मे रोशन करेगे। ___ एक दिन राजा सिद्धार्थ ने अपनी भार्या त्रिशला देवी से कहा कि- "अपना शरीर अब वहुत ही जीर्ण-शीर्ण हो गया है, -ससार के माया-मोह और वर्द्धमान के वात्सल्य मे पडकर दिगम्वरी दीक्षा लेने से अभी तक वचित रहे जो कि अपने लौकिक हित और लोक मर्यादा की रक्षा और स्थिति की दष्टि