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अथवा भविष्य युग मे नही, परन्तु त्रिकाल मे निरन्तर आवश्यकता है ! अनिवार्यता है ! अनिवार्यता इसलिए कि वर्तमान आत्माएँ जिस अवस्था मे है उनकी वह अवस्था--वह स्वरूप उनका अपना तो है नही, किसी दूसरे का है, जिसे कि अज्ञानता वश वे उसे अपना मानती है और निरन्तर निवृति मार्ग से दूर हटती हुई बन्धन मे फसती जाती है। इसी बन्धन से जीव मात्र को निकालने वाली जो भी वस्तु हो सकती है वही 'धर्म' है। व्यावहारिक नाम मे उसी धर्म को - कर्त्तव्य को "पतित पावन जैन धर्म' की सज्ञा है।
आज उसकी अनिवार्यता
हॉ, तो अतीत अथवा भविष्यत् युग की समस्याओ को कुछ देर के लिए यदि गौण रखा जाय, केवल वर्तमान काल का ही चित्रपट आज अपनी आँखो के सामने खीचा जाय तो कहने की आवश्यकता नहीं कि आज के युग मे उसका एक मात्र हल-अमोघ औषधि जो कुछ हो सकती है-"वह जैन धर्म ही है।
आज विश्व त्रस्त है-सतप्त है, भौतिकता अथवा जडवाद की क्षणिक विभूतियो मे प्राणी बिक रहा है नष्ट हो रहा है। पारस्परिक व्यवहार मे वैमनस्य की दुर्गन्धि छाई हुई है। व्यक्ति से लेकर समाज और राष्ट्र तक एक दूसरे का वैभव नही देख सकता। दृष्टिकोण और मार्ग सर्वथा विपरीत हो गये है। अहम् और दम्भ के विष से भरी हुई बुराईयॉ आज अच्छाईयो का जामा पहिने हुए एक-दूसरे को हड़पने की चेष्टा मे प्रवृत्त है। कही भी कोई भी मुक्ति का मार्ग नजर नहीं आता। आहे तथा क्रन्दन जीवन के परमाणु बन गये हैं। एक वाक्य मे-"आज वर्तमान निराश है-मार्ग प्रदर्शन की उसे प्रवल प्रतीक्षा है।"