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अवलोक ज्ञानमत्ता उनकी जिज्ञासु तत्त्व चकरा जाते । तत्त्वो की व्याख्या सुन सुन कर अपने को शिष्य बना पाते || निराकार आत्मा सबल थी, उनकी देहाकार का । आनन्दित त्रैलोक्य हुआ है ढोग मिटा ससार का ॥
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हाँ । समवयस्क ने एक बार माँ से पूछा “श्री वर्द्धमान" । हैं कहाँ ? शीघ्र उत्तर पाया, उत्तर मजिल पर विद्यमान ॥ जब ऊपर जाकर देखा तो, फिर वहाँ नही उनको पाया । तत्रस्थित पितु श्री से पूछा, उनसे तब नीचे बतलाया || ऊपर नीचे पता नही था असमजस के द्वार का । आनन्दित त्रैलोक्य हुआ है, ढोग मिटा ससार का ॥
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साथी वोला तुम कहाँ छिपे ? चिंतन की मुद्रा में बैठे । सातो मजिल मे खोजा पर, तुम किस मजिल में स्थित थे ? मा से पूछा क्यो नही मित्र ? यो वर्द्धमान से प्रश्न किया । साथी ने उत्तर दिया तभी इस पूछताछ ने भुला दिया ॥ 'अर्थ न कुछ भी ज्ञात हुआ, ऊपर नीचे व्यवहार का । आनन्दित त्रैलोक्य हुआ है, ढोग मिटा ससार का ॥
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तव वर्द्धमान ने कहा मित्र, है दोनो ही के कथ्य सत्य । माँ से ऊपर पितु से नीचे सापेक्षतया है यही तथ्य || यदि वीर चाहते तो उदात्त, क्षत्रिय राजा बन सकते थे । जनता पर शासन कर विलास, भोगो मे भी रम सकते थे | आनन्द अतीन्द्रिय खोजी को है समय न उपसहार का ।
आनन्दित तैलोक्य हुआ है, ढोग मिटा संसार का ॥