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भत्तिनिभरो हरीनाम विजुकुमारिंदो तिपयाहिणापुचगं निवडिऊण चलणेसु संघवं काउं पवचो । कई ?--- जय निज्जियदुज्जयकुसुमवाण !, अविणस्सरपाविय सुहनिहाण ! | उवसग्गवेरसमरे क्कधीर !, तुह सच्चं नाउँ जिगिंद वीर ! ॥ १ ॥ संसारज लहिनिवडतसत !, पई एक्किं रक्खियबहुदुहत्त । तुह सुमरण मित्तेवि पावरासि, नासइ तिमिरं पिव रविपयासि ॥ २ ॥ हदंसणमेत्तेऽवि जेन बुद्ध, ते तिक्खदुक्खलक्खेहिं रुद्ध । तु चणकमलमुद्दकियस्स, भद्दाई होंति धरणीयलस्त ॥ ३॥ स कत्थ जाय हरिहरिणपमुह, भुवणेसर ! ते तेरिच्छनिवह । गिरिकंदरपडिमा संपवन्नु, तुहं दिहु जेहिं जिण ! कणयवन् ॥ ४ ॥ तावच्चिय घोरभवाडवीए, निवडंति जीवा दुहसंकडाए। जावज्जवि तुम्ह पयारविंद सेवं कुर्णति नो जिणवाद! ॥२५॥ हिमवंतपमुहकुलपचएसु, खीरोयहिवेइरसायलेसु । गायंति कित्तिं तुह भुवणनाह !, किन्नरसमूह दइयासणाह ॥६॥ तु एक कह वित्थारुपत्त, नीसेस कहंतर जणिहिं चन्त । उइयंमि अहव रविमंडलंमि, खज्जोय न सोहई नहयलथि ॥७॥ इय विज्जुकुमारिंदो थोडं कहि च केवलुप्पत्ती । पञ्चासन्नं पच्छा नियभवणं अइगओ नमिउं ॥ ८ ॥
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