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कविवर "सुमित्रानन्दन पन्त' ने अपने ग्रन्थ 'पल्लव की भूमिका' में अलंकार की परिभाषा में दी है जो इस प्रकार है:
"अलंकार केवल वाणी की सजावट नहीं वे भाव की अभिव्यक्ति के विशेष द्वार है भाषा की पुष्ठि के लिए राग की परिपूर्णता के लिए आवश्यक उपादान है। वे बागी के आचार व्यवहार और रीति-नीति है, पृथक स्थितियों के पृथक स्वरूप भिन्न अवस्थाओं के भिन्न-चित्र है जैसे वाणी की झंकारें विशेष घटना से टकराकर जैसे फेनाकार ही गयी हो । विशेष भावों के झोंके खाकर बाल लहरियाँ तरूण-तरंगों में फूट गयी हो। कल्पना के विशेष बहाव में पड़ आवर्तो में नृत्य करने लगी हो, वे वाणी के हास, अश्रु, स्पप्नपुलक हाव-भाव है जहाँ भाषा की जाली के बाल अलंकारों के चौखटे में फीट करने के लिए बुनी जाती है। वहाँ भावों की उदारता शब्दों की कृपण-जड़ता में बँधकर सेनापति के दाता और सूम की तरह इकसार हो जाती है।" हिन्दी में ही संस्कृत के अनुसरण पर कवि केशवदास' ने अलंकार शब्द का प्रयोग अपनी ‘कविप्रिया' में इसी व्यापक अर्थ में किया है 'संकीर्ण अर्थ में काव्य शरीर अर्थात् भाषा को शब्दार्थ से सुसज्जित तथा सुन्दर बनाने वाले चमत्कार पूर्ण मनोरंजन ढ़ग को अलंकार कहते हैं। काव्य में अलंकार की महत्ता सिद्ध करने वालों में वामन के अतिरिक्त आचार्य भामह, उद्धट, दण्डी और रूद्रट के नाम विशेष प्रख्यात हैं इन आचार्यों के काव्य में रस को प्रधानता न देकर अलंकार को मान्यता दी है।
कहने का तात्पर्य यह है कि काव्य में अलंकार की महत्ता को प्रायः सभी काव्य शास्त्रियों ने चाहे वह पाश्चात्य काव्यशास्त्रियों हो अथवा भारतीय कमोवेश सभी ने स्वीकार किया है। यहाँ अलंकार को और स्पष्ट करते हुए केशवदास जी कहते है:- अलंकार कल्पना की चारूता है हमारी कल्पना जब अनेक प्रकार के चित्रों का निर्माण करती हैं तो वह निर्मित अलंकार का पर्याय है। अलंकारों की दृष्टि कल्पना से ही होती है यदि कल्पना कवि की अनुभूति व चित्र से परे है