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का मुख्य कर्म पाठक या श्रोता को आनन्द तथा शिक्षा प्रदान करना, तथा गद्यलेखक या वक्ता का मुख्य-कर्म अनुनयन समझा जाता था। लौंजाइनस ने इस सूत्र में कुछ कमी महसूस करते हुए निर्णायक रूप से यह सिद्धान्त प्रस्तुत किया कि काव्य और साहित्य का परम् उद्देश्य चर्मोल्लास प्रदान करना है, पाठक या श्रोता को वेद्याान्तर शून्य बनाना है। दूसरे अध्याय में कवि निराला की काव्य-सर्जना का सर्जनात्मक विकास उनके प्रकाशन वर्ष के क्रम के अनुसार दिखाया गया है। अगले अध्याय में निराला काव्य को लौंजाइनस के उदात्त सिद्धान्त के पॉचों आयामों पर साधने का प्रयास किया गया है। यह आवश्यक नहीं है कि शोध-कर्ता ने पूरे-के-पूरे निराला काव्य को लौंजाइनस के उदात्त सिद्धान्त के पांचों आयामों पर साथ ही लिया हो, यद्यपि कोशिश यही रही है। इस शोध-प्रबन्ध के चौथे अध्याय को उपसंहार शीर्षक दिया गया है जिसमें पूरे शोध प्रबन्ध का निष्कर्ष प्रस्तुत किया गया है।
प्रस्तुत शोध-प्रबन्ध के विषय चयन से लेकर इसके पूरा होने तक, इस शोध-प्रबन्ध के निर्देशक और मेरे गुरू डॉ० किशोरी लाल जी का अनवरत सहयोग मुझे मिलता रहा है। इसके लिए उनके प्रति कृतज्ञता और आभार व्यक्त करना औपचारिक सा लग रहा है, क्योंकि बिना उनके सहयोग पूर्ण व्यवहार के इस शोध-प्रबन्ध का पूरा होना सम्भव ही नहीं था। साथ ही मैं अपने विभाग के उन प्राध्यापकों का भी आभारी हूँ जिनका जाने-अनजाने सहयोग मुझे समय-समय पर मिलता रहा है विशेष रूप से प्रो0 सत्यप्रकाश मिश्र एवं प्रो० राजेन्द्र कुमार का। अपने मित्रों तीर्थराज एवं उनकी पत्नी श्रीमती शालिनी, मनोज, राजेश, राजीव, आनन्द, अशोक, घनश्याम, सुबोध, उपेन्द्र एवं सुश्री हेमलता के प्रति भी मैं आभार व्यक्त करना चाहूँगा जिन लोगों का प्रोत्साहन इस शोधप्रबन्ध के पूरा होने तक बराबर मिलता रहा है। साथ ही साथ अपने