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कुन्दकुन्दाचार्यके तीन रत्न ही आत्मा समझनेवाला नहीं बनता; अथवा खास तौरसे ज्ञानरूप परिणामों में परिणत होकर, केवल ज्ञाता बनकर साक्षात् अकर्तापन नहीं प्राप्त कर लेता।
क्षणिकवादीको उत्तर - इसी प्रकार स्याद्वादसे क्षणिकवादियोंके आक्षेप भी दूर हो जाते हैं। जीवके पर्याय पलटते रहते हैं, यह सत्य है; परन्तु कोई-न-कोई अंश ( द्रव्यांश ) तो कायम ही रहता है। अतएव इस समय जो फल भोगता है उसीने पहले कर्म किया था, ऐसा एकान्त कथन करना अथवा उसने नहीं ही किया था, ऐसा एकान्त कथन करना, ठीक नहीं । पर्यायोंकी दृष्टिसे देखिए तो भोगनेवाला जीव कर्म करनेवाला नहीं है, और अगर द्रव्यकी अपेक्षा देखा जाये तो कर्म करनेवाला ही इस समय फल भोगता है। अतएव जो करता है वही नहीं भोगता, वरन् दूसरा ही भोगता है - कर्मका कर्ता दूसरा और भोक्ता दूसरा ही है - ऐसा कहनेवाला मिथ्यादृष्टि और अजैन है । ( स० ३४५-८)
आत्मा परद्रव्यका ज्ञाता भी नहीं - कलई घर वगैरहको सफेद करती है, परन्तु इसी कारण वह घर आदि परद्रव्यकी अथवा घर आदि परद्रव्यरूप नहीं बन जाती; उसका अपना पृथक् अस्तित्व कायम रहता है। इसी प्रकार आत्मा जिस अन्य द्रव्यको जानता है, उस अन्य द्रव्यका या अन्य द्रव्यमय नहीं बन जाता, उसका अपना अस्तित्व अलग ही रहता है। इसी प्रकार आत्मा जिन भिन्न द्रव्योंको देखता है, त्यागता है, श्रद्धान करता है, उसी द्रव्यरूप नहीं बन जाता - तद्रूप नहीं होता। वह अपना निराला
१. यह पैराग्राफ मूलमें नहीं है। टीकाकार श्रीअमृतचन्द्र ने इस जगह इसका सन्निवेश किया है और ऐसा करनेसे ही पूर्वापर सम्बन्ध कायम रहता है। आगे भी मूलकी बात स्पष्ट करने और पूर्वापर सम्बन्ध जोड़नेके लिए टीकाकारोंके वाक्योंमें-से बहुत-सा भाग अनुवादमें शामिल किया गया है। जैसा कि उपोद्घातमें कहा गया है, ग्रन्थकारने परम्परासे चले आये श्लोकोंको संग्रह करके ग्रन्थों में शामिल कर लिया हो, ऐसा प्रतीत होता है।