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कुन्दकुन्दाचार्यके तीन रत्न
परोक्ष नहीं है, क्योंकि वह स्वयं ज्ञान स्वरूप बन गया है। वह इन्द्रियातीत
- इन्द्रियोंकी मर्यादा भी नहीं है । वह सभी ओरसे, सभी इन्द्रियोंके गुणोंसे समृद्ध बन गया है । इन्द्रियोंकी सहायता बिना ही, केवल आत्माके द्वारा आकाश आदि अमूर्त द्रव्योंका तथा मूर्त द्रव्योंमें भी अतीन्द्रिय परमाणु आदि पदार्थोंका और क्षेत्र एवं कालसे व्यवहित ( अन्तरयुक्त ) वस्तुओंका, तथा अपना या अन्य द्रव्योंका समस्त पदार्थोंका उसे जो ज्ञान होता है, वह अमूर्त और अतीन्द्रिय होनेके कारण प्रत्यक्ष है । जब आत्मा अनादिकालीन बन्धके कारण मूर्त ( शरीरयुक्त ) होता है, तभी वह अपने ज्ञेय मूर्त पदार्थोंको अवग्रह, ईहा आदिके क्रमसे जानता है, अथवा नहीं भी जानता । ( प्र०१, ५३-८ )
सर्वगतता - आत्मा ज्ञानके बराबर है, ज्ञान ज्ञेयके बराबर है और ज्ञेय लोक तथा अलोक सभी हैं, अतएव ज्ञान स्वरूप आत्मा सर्वगत व्यापक - कहलाता है । आत्मा अगर ज्ञानके बराबर न हो तो या तो उससे बड़ा होगा या छोटा होगा । अगर आत्मा ज्ञानसे छोटा है तो आत्मासे बाहरका ज्ञान अचेतन ठहरेगा और ऐसी अवस्था में वह जान कैसे सकेगा ? अगर आत्मा ज्ञानसे बड़ा है तो ज्ञानसे बाहरका आत्मा, ज्ञानहीन होनेके कारण किस प्रकार जान सकता है ? अतएव ज्ञानमय होनेके कारण केवलज्ञानी जिनवर सर्वगत हैं, यही कहना उचित है । जगत्के समस्त पदार्थ आत्मज्ञानके विषय होनेके कारण तद्गत हैं । ज्ञान आत्मा ही है, आत्माके बिना ज्ञान रह ही कहाँ सकता है ? इसलिए ज्ञान आत्मा है, किन्तु आत्मा ज्ञान भी है और अन्य ( सुखादि ) भी है । ( प्र०१, २१-७ )
आत्मा ज्ञान स्वभाव है और पदार्थ उसके ज्ञेय हैं । फिर भी जैसे चक्षु और रूप एक-दूसरेमें प्रवेश नहीं करते, वैसे ही ज्ञान और ज्ञेय अन्योन्यमें
हो जाता है और कालान्तर में उस वस्तुका स्मरण किया जा सकता है, ऐसा संस्कारविशेष 'धारणा' ज्ञान कहलाता है ।