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द्रव्यविचार ( L५% चिपटता है, उसका उपादान कारण जीव नहीं है। जैसे अपने परिवारजकार कर्ता आत्मा अपने भावोंका कर्ता है, उसी प्रकार कम भी अपने स्वभावसे ही अपने परिणमनका कर्ता है। ___ यहाँ यह प्रश्न उपस्थित होता है कि अगर कर्म अपने परिणमनका कर्ता है और जीव अपने परिणमनका कर्ता है तो यह कैसे कहा जा सकता है कि जीव कर्म बाँधता है या कर्मका फल भोगता है ? इस प्रश्नका समाधान इस प्रकार है : ___ यह सम्पूर्ण लोक, सर्वत्र सूक्ष्म, स्थूल इस प्रकार अनन्तविध जडकर्मद्रव्योंसे खचाखच भरा हुआ है। जिस समय जीव अपना अशुद्ध विभावपरिणमन करता है, उस समय, वहाँ एक ही क्षेत्रमें विद्यमान कर्मद्रव्य, जीवके साथ बँधकर ज्ञानावरण आदि आठ कर्मोंके रूपमें परिणत हो जाते हैं। इस प्रकार कर्म अपने ( ज्ञानावरण आदि) परिणामोंका कर्ता है सही, मगर जीवके भावोंसे संयुक्त होकर ही। तात्पर्य यह हुआ कि जैसे ही जीवमें भाव-परिणमन होता है कि जड़ कर्ममें भी उसका अपना परिणमन हो जाता है, इसी प्रकार कर्ममें अपना परिणमन होनेके साथ ही जीवके भावोंमें भी परिणमन होता है। इस तरह जीव अपने भावों द्वारा कर्म-परिणमनका भोक्ता है। ( पं० ५३-६९)
जीव परिणमनशील है। अतएव शुभ, अशुभ या शुद्ध-जिस किसी भावके रूपमें वह परिणमन करता है, वैसा ही वह हो जाता है। यदि आत्मा स्वभावसे अपरिणामी होता तो यह संसार ही न होता। कोई भी द्रव्य, परिणाम-रहित नहीं है और न कोई परिणाम द्रव्यरहित है। पदार्थका अस्थित्व ही द्रव्य, गुण और परिणाममय है। आत्मा जब शुद्ध भावके रूपमें परिणत होता है, तब निर्वाणका सुख प्राप्त करता है, जब शुभभावरूपमें परिणत होता है, तब स्वर्गका सुख प्राप्त करता है और जब अशुभभाव-रूपमें परिणत होता है तब हीन मनुष्य, नारक या पशु आदि बनकर सहस्रों दुःखोंसे पीड़ित होता हुआ चिरकाल तक संसारमें भ्रमण