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संक्षेपमें नपे-तुले शब्दोंमें समझा सकना सहज हो गया है ।
इस पुस्तकको समझने के लिए जैन तत्त्वज्ञानके पारिभाषिक शब्दोंका पहले से ही साधारण परिचय होना आवश्यक है, जैन आचार्योंने भारतीय दर्शनको जो देन दी है, उसमें पारिभाषिक शब्दोंके निर्माणका महत्त्वपूर्ण स्थान है, इसकी ओर विद्वानोंका ध्यान अभी पूरी तरह नहीं गया है । हमारे आचार्योंने चेतन और अचेतन मनकी क्रियाओं, मनोविज्ञानके तत्त्वों, अध्यात्म और दर्शनशास्त्र के विवेचनके लिए अनेक नये शब्दोंको गढ़ा है । आज अनेक रूढ़ शब्दोंको अपने मौलिक रूपमें जानने और समझने के लिए जैन दर्शनका अध्ययन नितान्त आवश्यक है, 'ईहा', 'अवाय', 'नय', 'विज्ञान', 'पुद्गल', 'समय', 'धर्म', 'अधर्म' आदि शब्द उदाहरणके रूपमें रखे जा सकते हैं । लेखकने प्रत्येक कठिन पारिभाषिक शब्दोंको थोड़े शब्दों में समझाने या संक्षिप्त पादटिप्पणियों द्वारा स्पष्ट करनेका प्रयत्न किया है और पाठकके ज्ञानको अनावश्यक विस्तारमें भटकने से बचा लिया है, उदाहरणार्थ, 'गुणस्थान' शब्दको ७६ पृष्ठके पाद टिप्पणमें इस तरह समझाया गया है ।
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''गुण' अर्थात् आत्माकी स्वाभाविक शक्तियाँ, और 'स्थान' अर्थात् उन शक्तियोंकी तर-तमतावाली अवस्थाएँ, आत्मा के सहज गुणोंपर चढ़े हुए आवरण ज्यों-ज्यों कम होते जाते हैं, त्यों-त्यों गुण अपने शुद्ध स्वरूपमें प्रकट होते जाते हैं, शुद्ध स्वरूपकी प्रकटताकी न्यूनाधिकता ही 'गुणस्थान' कहलाती है, गुणस्थान चौदह हैं ।"
एक तरहसे, यह ग्रन्थ जैन धर्म और जैन तत्त्व ज्ञानका सारसंचय है, इसे समझने के लिए केवल पढ़ लेना ही पर्याप्त नहीं है, यह अध्ययन और मननकी चीज है । दूसरी बात यह भी है कि इस पुस्तकको पढ़कर यदि पाठकने जैनधर्मकी मौलिक देन - 'निश्चय' और 'व्यवहार' ज्ञान या 'पारमार्थिक' और 'व्यावहारिक दृष्टिबिन्दु - को न समझा और वैयक्तिक आचरण में यदि उसे स्थान न दिया तो पुस्तकसे प्राप्त अन्य पाण्डित्य व्यर्थ