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द्रव्यविचार
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फिर भले ही उसका ज्ञानके साथ किसी
मान लिया जाय ।
कहना ही पड़ेगा ।
न
आत्मा ज्ञानी नहीं हो सकता, प्रकारका सम्बन्ध भी क्यों न आखिर ज्ञानके साथ सम्बन्ध होनेसे पहले उसे अज्ञानी लेकिन अज्ञानी मान लेने पर भी अज्ञानके साथ तो उसकी एकता ( अभिन्नता ) माननी पड़ेगी । सम्बन्ध दो प्रकारका है - संयोग सम्बन्ध और समवाय सम्बन्ध । एकके बिना दूसरेका न होना - दो वस्तुओं का सदा साथ ही रहना, पृथक् रहना और दोनों पृथक्-पृथक् दिखलाई न देना समवाय सम्बन्ध कहलाता है । द्रव्य और गुणोंके बीच इसी प्रकारका सम्बन्ध होता है । परमाणुमें जो वर्ण, रस, गन्ध और स्पर्श कहे जाते हैं, वे परमाणुसे भिन्न नहीं हैं, तथापि व्यवहारमें उन्हें भिन्न कहते हैं । इसी प्रकार दर्शन और ज्ञानगुण भी जीवसे वस्तुत: अनन्यभूत हैं, परन्तु कहनेमें भिन्न कहे जाते हैं । वह स्वभावसे भिन्न नहीं है । ( पं० ४३-५२ )
आत्मा गुण अनन्त हैं और अमूर्त हैं । उन अनन्त गुणोंके द्वारा जीव विविध प्रकारके परिणामोंका अनुभव करता है ( पं० ३१ ) ( संसारी अवस्थामें ) जोव चेतनायुक्त है, बोध-व्यापारसे युक्त है, प्रभु ( करने न करने में समर्थ ) है, कर्ता है, भोक्ता है, प्राप्त देहके परिमाणसे युक्त है । जीव वास्तव में अमूर्त किन्तु कर्मबद्ध अवस्था में मूर्त है । ( पं० २७ )
।
इन्द्रियाँ जीव नहीं हैं। छह प्रकारके काय ( पृथ्वी, पानी, अग्नि, वायु, वनस्पति और त्रस जीवोंके शरीर ) भी जीव नहीं हैं । इन इन्द्रियों और कायोंमें जो चेतना है, वही जीव है जीव सब कुछ जानता है, सब कुछ देखता है । सुखकी इच्छा करता है दुःखसे डरता है । हित-अहित कार्योंका आचरण करता है और उनका फल भोगता है । इनसे तथा इसी प्रकारके अन्य अनेक पर्यायोंसे जीवको पहचानकर, ज्ञानसे भिन्न ( स्पर्श, रस आदि ) चिह्नोंसे अजीव तत्त्वको पहचानना चाहिए । आकाश, काल, पुद्गल, धर्म और अधर्म द्रव्योंमें जीवके गुण उपलब्ध नहीं होते, अतएव यह सब अचेतन हैं और जीव चेतन है । जिसमें सुख-दुःखका ज्ञान