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कुन्दकुन्दाचार्यके तीन रत्न
गतिक्रियासे रहित है और दूसरे द्रव्योंको भी गति नहीं कराता । मछली की भाँति सभी गतिशील द्रव्य अपनी-अपनी गतिमें आप ही उपादान कारण हैं, परन्तु जैसे पानी के अभाव में मछलीकी गति होना सम्भव नहीं है, उसी प्रकार गतिशील द्रव्यकी गति, धर्मद्रव्यके बिना शक्य नहीं है ।
३. अधर्म - अधर्मद्रव्य, धर्मद्रव्यके समान ही है । विशेषता यह है कि धर्मद्रव्य गति - सहायक है, जब कि अधर्मद्रव्य, गतिक्रियापरिणत जीव और पुद्गल द्रव्योंकी स्थितिमें सहायक होता है । जिन द्रव्योंमें गतिक्रिया हो सकती हैं उन्हीं में स्थितिक्रिया भी हो सकती हैं ।
इन दोनों - धर्म और अधर्म - द्रव्योंके होने और न होनेके कारण ही आकाश लोक और अलोक विभाग हुए हैं । जहाँ धर्म-अधर्मद्रव्य हैं वह लोक श्रौर जहाँ यह दोनों मौजूद नहीं हैं वह अलोक कहलाता है । गति और स्थिति इन्हीं दोनोंकी सहायतासे होती है। दोनों एक-दूसरेसे भिन्न हैं, लेकिन एक ही क्षेत्रमें रहने के कारण अविभक्त भी हैं ( पं० ८३-९) ४. काल - कालद्रव्यमें पाँच वर्ण, पाँच रस या सुगन्ध अथवा दुर्गन्ध नहीं है । आठ प्रकारके स्पर्शी में से कोई स्पर्श भी नहीं है । काल अगुरुलघु ( अमूर्त ) है । अन्य द्रव्योंको परिणमाना - परिणमनमें निमित्त होना उसका लक्षण है । जैसे कुम्हारके चाकके नीचेकी कील चाककी गतिमें सहायक होती है, मगर गतिमें कारण नहीं है, इसी प्रकार कालद्रव्य, अन्य द्रव्योंके परिणमनमें निमित्त रूप है, कारण नहीं ।"
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व्यवहार में समय, निमिष, काष्ठा ( १५ निमिष ), कला (२० काष्ठा), नाली ( घड़ी = बीस कलासे कुछ अधिक ), दिवस, रात, मास, ऋतु, अयन, संवत्सर आदि कालके विभागोंकी कल्पना अन्य द्रव्योंके ( आँखोंका निमेष या सूर्यकी गति आदिके) परिमाणसे की जाती है, इसलिए यह सब विभाग पराधीन हैं। बिना किसी नाप- परिमाणके 'जल्दी' 'देर'
१. यह उदाहरण मूलका नहीं है ।