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द्रव्यविचार सत्की व्याख्या - किसी भी पदार्थको सत् कहनेका अर्थ यह है कि वह उत्पत्ति व्यय और ध्रौव्यरूप है । सत्ता - अस्तित्वका अर्थ ही उत्पादनव्यय-ध्रौव्यात्मक होता है (पं०८) इसका आशय यह हुआ कि पूर्वोक्त छह द्रव्योंमें कोई भी द्रव्य एकान्त अपरिणामी था कूटस्थ नित्य नहीं है, और न एकान्त क्षणिक ही है, किन्तु परिणामी-नित्य है । हम प्रत्यक्ष देखते है कि वस्तुके मौजूदा परिणाम ( पर्याय-अवस्था) नष्ट हो जाते हैं, नये परिणाम उत्पन्न होते हैं, फिर भी वस्तु अपने मूल रूपमें कायम रहती है । उदाहरणार्थ - सोनेका कुण्डल मिटता है और कड़ा बनता है। यहाँ कुण्डल-पर्यायका नाश हुआ है और कड़ा-पर्यायकी उत्पत्ति हुई है, फिर भी - एक रूपके नाश होनेपर और दूसरा रूप उत्पन्न होनेपर भी - सुवर्ण ज्योंका त्यों विद्यमान है। यहाँ ज्ञातव्य है कि द्रव्यका उत्पाद या विनाश नहीं होता, परन्तु अपनी पर्यायोंकी दृष्टिसे वह उत्पत्ति और विनाशसे युक्त बनता है ( क्योंकि पर्याय द्रव्यसे एकान्ततः भिन्न नहीं है, वह द्रव्यके ही विभिन्न रूप है)। दूसरे शब्दोंमें यह कहा जा सकता है कि अपने
कालिक विविध भावोंके रूपमें परिणत होते रहनेपर भी द्रव्य स्वयं नित्य रहता है। इस प्रकार द्रव्य एक ही समयमें उत्पत्ति, विनाश और स्थिति रूप भावोंसे समवेत रहता है। हाँ, उत्पति, स्थिति और नाश पर्यायोंमें रहते हैं, मगर वे पर्याय द्रव्यके ही हैं, अतएव द्रव्य ही उत्पादव्यय-ध्रौव्यरूप होता है । (पं० ११, ६, प्र० २, ८-९, १२)
द्रव्यकी व्याख्या - अमुक पदार्थ द्रव्य है, इस प्रकार कहनेका अर्थ यह है कि वह अपने विविध परिणामोंके रूपमें द्रवित होता है । अर्थात् अमुक-अमुक पर्याय प्राप्त करता है। ( पं०९) बिना पर्यायका द्रव्य नहीं हो सकता और विना द्रव्यका पर्याय होना सम्भव नहीं है । द्रव्य गुणात्मक है और उसके विविध रूपान्तर ही उसके पर्याय कहलाते हैं (प्र० २, १) इसी प्रकार न द्रव्यके बिना गुण रह सकते हैं, न गुणोंके बिना द्रव्य ही रह सकता है। (पं० १२-३) संक्षेपमें जो गुण और पर्यायसे युक्त है और अपने