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कुन्दकुन्दाचायके तीन रत्न
व्यावहारिक दृष्टि-बिन्दु १. प्रास्ताविक
मंगलाचरण - ध्रुव और अनुपम मोक्षगतिको प्राप्त सब सिद्धोंको मैं नमस्कार करता हूँ और उनके उपदेशके अनुसार इस आत्मशास्त्रकी रचना करता हूँ। ( स०१)
कामभोगसम्बन्धी बातें सभीने सुनी हैं, बार-बार सूनी हैं। सबके परिचयमें आयी हैं और सभीने उनका अनुभव किया है । राग-द्वेषसे रहित शुद्ध आत्मस्वरूपकी कथा दुर्लभ रही है। मेरे पास जो कुछ ज्ञानवैभव है, उसके अनुसार उस आत्मस्वरूपका वर्णन करता हूँ। ( स० ४-५ )।
शास्त्रज्ञानकी आवश्यकता - जबतक पदार्थोंका निश्चय न हो, कोई पुरुष एकाग्र ( व्यवसायात्मक ) होकर श्रेयस्की उपलब्धि नहीं कर सकता । पदार्थोंका निश्चय शास्त्रके बिना सम्भव नहीं है। अतएव सबसे पहले शास्त्रज्ञान प्राप्त करनेका प्रयत्न करना चाहिए। शास्त्रज्ञानहीन पुरुष स्व-परका - आत्मा-अनात्मा का - स्वरूप नहीं समझ सकता और जबतक स्व-परका विवेक नहीं हुआ तबतक वह कर्मोंका नाश कैसे कर सकता है ? (प्र० ३, ३२-३ )
आत्मासे भिन्न पदार्थों में जीवका जो मूढ़भाव है, वह मोह कहलाता है। जो पदार्थ जैसा है उसे वैसा न समझना, अथवा उलटा समझना, अन्य प्राणियोंके प्रति करुणा न होना, और आसक्ति, यह सब मोहके लक्षण हैं। मोहयुक्त जीव, अन्य पदार्थोंमें राग-द्वेष करके क्षुब्ध होता है और कर्मबन्धनसे बद्ध होता है। इसके विपरीत, जिनशास्त्रके अध्ययनसे अथवा