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कुन्दकुन्दाचार्यके तीन रत्न है। सर्वज्ञोंने जीवको होनेवाला कर्मबन्ध इसी प्रकार कहा है। परन्तु जीव जब आत्मा और आस्रवका भेद जान लेता है, तब उसे कर्मबन्ध नहीं होता; क्योंकि जीव जब आस्रवोंकी अशुचिता और जड़ता आदिको जान जाता है, तब उनसे निवृत्त हो जाता है। वह समझता है कि मैं एक हूँ, शुद्ध हूँ, निर्मल हूँ तथा ज्ञानधन हूँ।' ( स० ६८-७४ ) ।
अन्तमें वे स्पष्ट कह देते हैं - 'व्यवहारदृष्टिवाला कहता है कि जीवको कर्मका बन्ध होता है, स्पर्श होता है; परन्तु शुद्ध दृष्टिवाला कहता है कि जीवको न कर्मका बन्ध होता है, न स्पर्श होता है। परन्तु यह सत्र दृष्टियोंके झगड़े हैं। आत्मा तो इन विकल्पोंसे परे है; और यही 'समयसार'का मत है। इसीको सम्यग्दर्शन या ज्ञान कह सकते हैं।' ( स० १४१ ) इत्यादि।
इस कथनसे यह नहीं समझ लेना चाहिए कि कुन्दकुन्दाचार्य जैनधर्मक सिद्धान्तको सर्वथा त्याग देते हैं। क्योंकि ऐसा होता तो उनके सामने भी वही आक्षेप आ उपस्थित होते जो सांख्य या वेदान्तके सामने उपस्थित होते हैं। इसलिए वे यह अवश्य कहते हैं कि 'जीव स्वयं क्रोधादि रूपमें परिणत होकर कर्मसे बद्ध न होता तो वह अपरिणामी ठहरता और सांख्यसिद्धान्तकी भाँति संसाराभाव आदि दोष उपस्थित हो जाते। अतएव जीव स्वयमेव क्रोधभावमें परिणत होकर क्रोधरूप हो जाता है, ऐसा समझना चाहिए।' ( स० १२१ इत्यादि)।
परन्तु वे तुरन्त इतना और जोड़ देते हैं कि 'उसमें समझने योग्य इतना है कि ज्ञानीके भाव ज्ञानमय होते हैं और अज्ञानीके अज्ञानमय । तथा अज्ञानमय भावोंके कारण अज्ञानी कर्म बन्धन करता है, ज्ञानी नहीं करता । ज्ञानमय भावसे ज्ञानमय भाव ही उत्पन्न होता है और अज्ञानमय भावसे अज्ञानमय भाव । जीवको अतत्त्वका भान होना और तत्वका अभान होना ही अज्ञान है ।' ( स० १२६, १३१ आदि ) । . 'अनादि कालसे अपने साथ बंधे मोहनीय कर्मके कारण, वास्तवमें