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- उपोद्घात मालव देशमें, वारापुर नगरमें कुमुदचन्द्र नामक राजा राज्य करता था। उसकी रानीका नाम कुमुदचन्द्रिका था। उसके राज्यमें कुन्दश्रेष्ठी नामका व्यापारी अपनी कुन्दलता नामक पत्नीके साथ रहता था। उसके पुत्रका नाम कुन्दकुन्द था। एक दिन जिनचन्द्र नामक आचार्यका उपदेश ग्यारह वर्षके बालक कुन्दकुन्दने सुना। आचार्यके उपदेशका उसपर इतना गहरा असर हुआ कि वह उनका शिष्य बन गया और उन्हींके साथ रहने लगा। थोड़े ही समयमें कुन्दकुन्द, जिनचन्द्र के अन्य सब शिष्योंसे आगे
आ गये और ३३ वर्षकी उम्रमें तो उन्हें आचार्य पदवी प्राप्त हो गयी। ध्यानादिमें श्रीकुन्दकुन्दाचार्यने इतनी प्रगति की थी कि एक बार कुछ शंका होनेपर उन्होंने विदेह क्षेत्रमें स्थित श्रीसीमन्धर स्वामीका चिन्तन इतनी उत्कटताके साथ किया कि सीमन्धर स्वामी सभामें बैठे-बैठे ही अधबीचमें बोल उठे - 'सद्धर्मवृद्धिरस्तु' । उस समय सभामें जो लोग बैठे थे, वह कुछ भी न समझ पाये कि स्वामीने अघबीचमें, किसके उत्तरमें यह वाक्य बोले हैं। तब सीमन्धर स्वामीने सभाजनोंको कुन्दकुन्दाचार्यके विषयमें बात बतायी । उसके बाद दो चारण सन्त, जो पूर्व जन्ममें कुन्दकुन्दाचार्यके मित्र थे, उन्हें आकाशमार्गसे, भरतक्षेत्रसे विदेह क्षेत्रमें ले आये। कुन्दकुन्दाचार्य वहाँ एक सप्ताह रहे और उन्होंने अपनी समस्त शंकाओंका समाधान प्राप्त किया। तदनन्तर तीर्थयात्रा करते-करते वे भरतक्षेत्रमें लौट आये । उनके उपदेशसे सात सौ स्त्री-पुरुषोंने दीक्षा ग्रहण की। कुछ समय बाद, गिरनार पर्वतपर श्वेताम्बरोंके साथ उनका विवाद हुआ। उन्होंने वहाँकी ब्राह्मी देवतासे स्वीकार कराया कि दिगम्बर मत हो सच्चा है।
इन दोनों दन्तकथाओंमें माता-पिताके नामोंमें तथा निवासस्थानके विषयमें स्पष्ट मतभेद है। दूसरी दन्तकथामें माता-पिताके समान अक्षरोंके जो नाम हैं वे सहज ही सन्देह उत्पन्न करते हैं। कुन्दकुन्दाचार्य के विदेह क्षेत्रमें जानेको घटनाका उल्लेख सर्वप्रथम वि० सं० ९९० में हुए देवसेनने 'दर्शनसार' ग्रन्थमें किया है। पंचास्तिकाय' की टोकामें जयसेन प्रकट