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जैनमेघदूतम् की कथावस्तु और पात्रों का चरित्रांकन
कथावस्तु:- आचार्य मेरूतुङ्ग कृत जैनमेघदूतम् की कथावस्तु संक्षेप मे इस प्रकार है:
प्रसिद्ध यदुवंश मे समुद्रविजय नामक राजा थे, जो अत्यन्त बलशाली और धार्मिक थे। इनके ज्येष्ठ पुत्र का नाम श्री नेमि था, जो जैन धर्म के २२वे तीर्थकर माने जाते हैं। श्री नेमि राजनीति धुरंधर भगवान श्री कृष्ण के चचेरे भाई थे। ये सौन्दर्य और पौरूष के अजेय स्वामी थे। समद्रविजय ने श्री नेमि का विवाह उग्रसेन की रूपसी एवं विदुषी पुत्री राजीमती से करने का निश्चय किया। वैभव प्रदर्शन के उस गुण मे महाराज समुद्रविजय अनेक बरातियों को लेकर पुत्र नेमिनाथ के विवाहार्थ गये। जब बरात वधू के नगर 'गिरिनगर' पहुँची तब वहाँ पर पशुओ की करूण चीत्कार श्री नेमि को सुनाई पड़ी। इस करूण चीत्कार ने नेमिनाथ की जिज्ञासा को कई गुना बढ़ा दिया। . पता लगाने पर उन्हें जब ज्ञात हुआ कि इन सभी पशुओं को काटकर उनके आमिष से विविध प्रकार के व्यञ्जन बरातियों के स्वागतार्थ बनाये जायेगे तो वे कॉप गये। उनकी भावना करूणा की अजस्र अश्रुधारा में परिवर्तित होकर प्रवाहित हो गई। इस घटना के बाद श्री नेमि को संसार से वैराग्य उत्पन्न हो जाता है और वे इस दुःखमय संसार को त्यागकर तपस्या के संकल्प के साथ कानन की ओर मुड़ जाते हैं।
उनके इस संकल्प को जानकर राजीमती अत्याधिक दुःखित हो जाती है। और वह बार-बार मूर्च्छित हो जाती है। इसके पूर्व अपने प्रिय के प्रति उसने अपने आन्तर प्रदेश में कितनी सुकोमल कल्पनाएँ सँजो रखी थी, परन्तु अकस्मात् यह क्या? नव वधू का घूघट पट उठाने से पूर्व ही यह निर्मम पटापेक्ष कैसा? परन्तु भारतीय नारी की भाँति राजीमती ने भी अपने