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रस का प्रयोग किया है और रस के सम्यक परिपाक मे सहायक गुणो का ही प्रयोग किया है।
जहाँ शृङ्गार रस और शान्त रस का प्रसंग है वहाँ कवि ने माधुर्य गुण का समावेश किया है क्योंकि माधुर्य गुण युक्त शब्दावली अत्याधिक कोमल होती है।
जहाँ काव्य मे वीरता और उग्र भाव का प्रदर्शन करना है, वहाँ कवि ने ओज गुण का सहारा लिया है। जहाँ भाव और भाषा की सहज सम्प्रेषणीयता अभीष्ट है। वहाँ कवि ने प्रसाद गुण का आश्रय लिया है। शायद कवि ने काव्य को माधुर्य गुण से विभूषित करने के लिए ही काव्य की भाषा को व्यञ्जना सिक्त कर दिया है, सुन्दर वाक्य विन्यास तथा अलंकारों की झडी लगा दी है। इस प्रकार कवि ने तीनों गुणों का कुशल प्रयोग कर काव्य की प्रभावोत्पादकता बढ़ा दी है।
"भाषा पुष्प है तो शैली उसकी सुरभि है।" अतः भाषा और शैली का परस्पर प्रगाढ़ सम्बन्ध है। कवि मेरूतुङ्ग की काव्य भाषा प्रायः क्लिष्ट है। विन्यास भी समासाकुल है। ग, ध, छ, ड, भ जैसे महाप्राण वर्णो का अनल्प प्रयोग है, साथ ही अनुप्रास अलङ्कार का भी प्रचुर प्रयोग है, अतः निष्कर्षतः कहा जा सकता है कि कवि द्वारा मुख्यतः गौडी रीति का ही प्रयोग किया गया है। वैदर्भी तथा पञ्चाली रीतियो का भी यत्र-तत्र दर्शन हो जाता है।' __आचार्य मेरुतुङ्ग भाषा के सम्राट है। शब्दों पर उनकी अद्भुत प्रभुता है। इनके काव्य में कुछ ऐसे शब्द मिलते है जिनका प्रयोग साहित्य में सामान्य रूप से देखने को नही मिलता है। ऐसे प्रयोग आचार्य ने सम्भवतः अपने भाषा पर अधिकार को प्रदर्शित करने के विचार से ही किये हैं; तभी तो उन्होने ऐसे शब्दों को अपने काव्य में प्रयुक्त किया है जिनके अर्थ किसी
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जैनमेघदूतम् २/१२