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'तेनुस्तद् भक्त्येति' इस क्रिया का एकत्व होने के कारण दीपक अलंकार, श्लोक के पूरे भाव मे उत्प्रेक्षा होने से उत्प्रेक्षा अलंकार; 'वनलक्ष्मी' इस श्लेषयुक्त विशेषण द्वारा अपकृत का कथन होने से समासोक्ति अलंकार; 'वल्ल्यो लोलैः किसलयकरैर्लास्यलीला' मे अनुप्रास अलंकार तथा उपर्युक्त अलंकार के संयोग से संकर अलंकार समाविष्ट हो रहा है।
इसप्रकार सात-आठ अलंकारो का समावेश होने पर भी इस श्लोक का भाव खण्डित नहीं हुआ है आचार्य मेरुतुङ्ग का श्लेष भी प्रशंसनीय है। किन्तु कही-कही अत्यन्त क्लिष्ट हो जाने से काव्य मे दुरूहता आ गई है। फिर भी सामान्यत: आचार्य की अलंकार योजना सुन्दर और प्रभावोत्पादक है
और अपने अलकृत काव्य शिल्प द्वारा जैनमेघदूतम् ने साहित्य जगत में महती प्रतिष्ठा एवं प्रशंसा अर्जित की है।
रस की दृष्टि से यदि हम इस काव्य का मूल्यांकन करें तो हम देखते है कि आचार्य मेरुतुङ्ग जैन मतावलम्बी कवि होने के कारण अन्य जैनकवियों की ही भाँति शृङ्गार के उभय पक्षों को चरम बिन्दु पर पहुँचाकर भी काव्य का पर्यवसान शान्त रस में ही करते हैं। शान्त रस राग द्वेष से ग्रस्त मानव समाज को शाश्वत आनन्द की प्राप्ति कराने की क्षमता रखता है। कवि का भी मूल उद्देश्य यह है, इसीलिए शृङ्गार के दोनो पक्षों की प्रमुखता देते हुए अन्त में उसका पर्यवसान इन्होंने शान्त रस में किया है। इस काव्य का प्रधान रस विप्रलम्भ शृङ्गार ही है। यह रस प्रिय वियोग से व्यथित नायिका की मनः स्थिति को तो स्पष्ट करता है साथ ही सांसरिक भोगों के प्रति उसकी विरक्ति को भी प्रदर्शित करता है। काव्य मे प्रमुख रूप से शृङ्गार तथा शान्त रस एवं कुछ स्थल पर वीर रस का भी सुन्दर परिपाक हुआ है।
काव्य शिल्प की दृष्टि से यदि काव्य का अवलोकन करें तो हम देखते हैं कि कवि ने जिस प्रकार के भावों की अभिव्यक्ति की है, उन्हीं के अनुकूल