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पाणिग्रहण के लिए भी तैयार नही है। श्री नेमि की जितेन्द्रियता को देखकर प्रकृति भी आश्चर्य से सिर पीटने लगती है। इनके ब्रह्मचर्यव्रत को देखकर गान्धारी बोल उठती है कि जन्म से ही ब्रह्मचर्यव्रत धारण करके आप ब्रह्म से ऊँचा कोई पद तो पाओगे नही और शादी कर लेने पर भी आप उस पद को प्राप्त करेगे ही। अतः 'एवमस्तु' कहकर आप हमसब को सुखी बनाओ, हम आपके पैरों पर गिरती हैं, हम सब आपकी दासी हैं ईश ! उपयुक्त चाटुकारिता लोगो को सुख तो दो। '
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इसप्रकार श्री नेमि आजीवन अविवाहित रह कर कठोर ब्रह्मचर्य व्रत के नियम का पालन करते हैं।
अपरिग्रह - विषयासक्ति का त्याग ही अपरिग्रह है । स्त्री पुत्र धन सम्पत्ति आदि मे जो आसक्ति है वही ममत्व कहलाता है। इस ममत्व का त्याग ही अपरिग्रह है। मनुष्य विषयों की ओर स्वभावतः आकृष्ट होता है। वह सदा धन सम्पत्ति इन्द्रिय सुख को बढ़ाने वाले विषयों की ही चिंता करता है। यही परिग्रह का स्वरूप है सभी विषयों में मैं परिग्रह बुद्धि का परित्याग ही अपरिग्रह है।
जैनमेघदूतम् के प्रथम सर्ग के प्रथम श्लोक में ही आचार्य मेरुतुङ्ग ने अपरिग्रह व्रत का पालन किया है। काव्य के नायक श्री नेमि मोक्ष पाने की इच्छा से अपनी कान्ता राजीमती का परित्याग कर देते है और सम्पूर्ण सम्पत्ति का भी वितरण करके तपस्या के लिए रैवतक पर्वत पर चले जाते हैं।
कश्चित्कान्तामविषयसुखानीच्छुरत्यन्तधीमा
नोवृत्तिं त्रिभुवनगुरूः स्वैरमुज्झाञ्चकार ।
जैन मेघदूतम् ३/१५ गान्धारी
-- राज्यमप्याप्यमीश।