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कवि ने वन लक्ष्मी की सुन्दरता का वर्णन किसी रमणीय युवती से कम नही किया है
ताराचारिभ्रमरनयनपद्मवद्दीर्घकास्या किञ्चिद्धास्यायितसितसुमा शुङ्गिकाव्यक्तरागा। ताभ्यां तत्र प्रसवजरजः कुङ्कुमस्यन्दलिप्ती नानावर्णच्छ निवसना प्रैक्षि विनेयलक्ष्मीः।'
अर्थात् भ्रमररूपी पुतलियो वाले कमल ही जिसके नेत्र है, कमलों से युक्त वापियाँ ही जिसके मुख है उज्ज्वल पुष्प ही जिसकी मुस्कुराहट है, फलों से गिरता हुआ पुष्परज ही जिसका कुङ्कमलेप है और नाना प्रकार के पत्ते ही जिसके वस्त्र है, इस प्रकार की वह वनलक्ष्मी है।
कवि ने वर्षाऋतु, वसन्तऋतु का वर्णन करने के पश्चात् ग्रीष्म ऋतु का वर्णन किया है। ग्रीष्म ऋतु भी मानवीय भावनासे ओत-प्रोत है। ये भी वसन्त ऋतु की भाँति श्री नेमि और श्रीकृष्ण का भव्य स्वागत करती हैं। ग्रीष्म ऋतु ज्येष्ठमास के आगे कर रसदार फलो से युक्त आम्र वृक्ष को नम्रीभूत शाखा रूपी भुजा से एवं पृथिवी पर गिरे हुए आम्र फलों से उन दोनों का स्वागत किया।
कवि की असामान्य काव्य प्रतिभा इस काव्य के अक्षर अक्षर में मुखरित होती हुई दिखाई देती है। काव्य में एक तरफ प्रकृति के ललित रूप का दर्शन होता है दूसरी तरफ प्रकृति का कठोर रूप का दर्शन होता हैं। ग्रीष्म ऋतु में सूर्य की प्रचण्ड धूप से परेशान लोगों का कवि ने कैसा स्वभाविक वर्णन किया है- ग्रीष्म ऋतु में सूर्य के प्रचण्ड धूप से नदी के तट का बालू
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जैनमेघदूतम् २/१५ जैनमेघदूतम् २/३६