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मिली है वह संस्कृत के अन्य किसी काव्य मे नहीं । काव्य दो भागो मे विभाजित है पूर्वमेघ और उत्तरमेघ। पूर्वमेघ तो यहाँ से वहाँ तक प्रकृति की ही मनोहर झाँकी या भारतभूमि के स्वरूप का ही मधुर गान है। कवि की पैनी दृष्टि में ग्रीष्म ऋतु की मन्द प्रवाहिनी नदी उस प्रेषित पतिका के समान प्रतीत होती है जो अपने पति के वियोग में मलिन वसना बन बड़े क्लेश से अपना जीवन बिताती है। प्राकृतिक दृश्यो मे विज्ञानसम्मत तथ्यों का भी पर्याप्त सनिवेश है। यक्ष तथा उसकी प्रेयसी की विरहावस्था का वर्णन कर कवि ने मार्मिक मनोहर चित्र उपस्थित किया है। मेघदूत वस्तुतः विरह पीड़ित उत्कण्ठित हृदय की मर्म भरी वेदना है। जिसके प्रत्येक पद्य मे प्रेम विह्वलता विवशता तथा विकलता अपने को अभिव्यक्ति कर रही है। पूर्वमेघ बाह्य प्रकृति का मनोरम चित्र है तो उत्तरमेघ अन्तःप्रकृति, अनुभव पर प्रतिष्ठित अभिराम वर्णन है। श्रङ्गार रस के वातावरण मे ही परिपुष्ट महाकवि कालिदास द्वारा विरचित इस दूत काव्य में सन्देश सम्प्रेषण हेतु धूम, तेज, जल, वायु के संयोग से निर्मित मेघ को चुना गया है।
काव्य मे मन्दाक्रान्ता छन्द का प्रयोग है। काव्य में श्लोको की संख्या के बारे में मत वैभिन्न्य है। बल्देव उपाध्याय के मतानुसार १११ श्लाकों का काव्य है। जबकि काशी नाथ १२१ श्लोक मानते हैं। मल्लिनाथ ने श्लाकों की संख्या ११५ बतायी है। उसी प्रकार मेकड़ोनल ने ११५ श्लोक कहे है
और विल्सन ने इस काव्य की श्लोकों की संख्या ११६ दी है। इस प्रकार अपनी विश्वमोहनी कथावस्तु के साथ यह दूत काव्य विश्वविख्यात हो गया है साथ ही दूतकाव्य की परम्परा का सिरमौर भी बन बैठा है।
यहाँ समस्त दूतकाव्यों को दो भागों में विभाजित किया जाता है - (क) संस्कृत साहित्य में उपलब्ध जैनेतर दूतकाव्य। (ख) संस्कृत साहित्य में उपलब्ध जैनदूतकाव्य।