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अर्थात जिसे 'ओज' कहते है सहृदयहृदय की वह दीप्ति अथवा प्रज्वल्लित प्रायता है जिसका स्वरूप चित्त की विस्तृति अथवा उष्णता है। यह वीर, बीभत्स और रौद्ररस में उत्तरोत्तर प्रकृष्टरूप से विराजमान रहा करता है। बीभत्सरौद्ररस में ओज की अधिकता होती है ऐसी मान्यता आचार्य मम्मट की है। '
' के अभिव्यञ्जक साधन निम्न है गुण
वर्गस्याक्रतृतीयाभ्यां युक्तौ वर्णौ दन्तिमौ । । '
उपर्यधो द्वयोर्वा सरेफो टठडढैः सह ।
शकारश्च पकारश्च तस्य व्यञ्जकतां गता । ।
तथा समासो बहुलो घटनौद्धत्यशालिनी ।
अर्थात वर्ण-जैसे कि क वर्ग आदि वर्गों के प्रथम (क, च, ट, त, प) और तृतीय (ग, ज, ड, द, ब) वर्णों का उनके अपने-अपने अत्यन्त वर्णों (वर्ग के प्रथम वर्णों के अन्त्य वर्ण ख, छ, ठ, थ, फ वर्गों के तृतीय वर्णों के अन्त्य वर्ण (ध, झ, ढ, ध, भ) से संयोग (जैसे की पुच्छ बद्ध आदि मे) नीचे ऊपर अथवा दोनों ओर से, किसी वर्ण के साथ संयुक्त रेफ (जैसे वक्त्र, निर्हाद आदि मे) संयुक्त अथवा संयुक्त ट, ठ, ड और ढ तालव्य शकार और मूर्धन्य षकार (२) दीर्घसमासवती रचना ( २ ) औद्धत्यपूर्ण पदयोजना।
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ओज
गुण का तीसरा प्रकार 'प्रसाद गुण' है। प्रसाद गुण सहृदय हृदय की एक ऐसी निर्मलता है जो कि चित्त में उसी भाँति व्याप्त हो जाती है जिस
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२ सा. द. ८/५
सा. द. ८/६
बीभत्सरौद्ररसयोस्तस्याधिक्यं क्रमेण च (काव्य प्रकाश ८/६९ )