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होता है कि कवि ने इन सभी का प्रयोग अपने भाषा अधिकार को प्रदर्शित करने के लिए ही किया है। कवि का भाषा पर असाधरण अधिकार है। इन नवीन प्रयोगो द्वारा भाषा मे दुरूहता तो आयी है परन्तु उनमें भावाभिव्यक्त की कमी नहीं है। कवि द्वारा यत्र-तत्र सरल भाषा का भी प्रयोग दर्शनीय है -
पूरं पूरं सुरभिसलिलैः स्वर्णशृङ्गाणि रङ्गात् सारङ्गाक्ष्यः स्मितकृतममुं सर्वतोऽप्यभ्यषिञ्चन् । धारा धाराधर। सरलगास्ताश्च वारामपाराः स्मारादोऽङ्गप्रसृमरशरासारसारा विरेजुः ।।
अर्थात् सारङ्गाक्षी उन रमणियो ने अपनी स्वर्णिम पिचकारियो को सुरभित जलो के रङ्गो से भर कर मुस्कुराते हुए उन भगवान श्री नेमि को सराबोर कर दिया। हे मेघ। सीधी जाती हुई जल की वे अपार धाराएँ भगवान श्री नेमि के अङ्गो की ओर चलाए गये काम के वाणों की वृष्टि सी शोभित हो रही थी।
कवि ने काव्य में अनेक सुभाषितों का प्रयोग किया है जिससे भाषा और भी चारूतर बन गयी है। यथा ‘-सन्तः प्रायः परहितकृते नाद्रियन्ते स्वमर्थम् । सारग्रन्थान् कविरिव सुधीः सद्गुणं सूक्तिजातम्। 'नैतन्नोद्यं विमलरुचयः प्रायशो हि श्वयन्ति, क्षीयन्ते चाभ्यधिगततमः स्तोमभावः स्वभावात्" आदि इन सुभाषितों से भाषा को अलङ्कत किया है।
इस प्रकार आचार्य मेरूतुङ्ग प्रकाण्ड विद्वान कवि है उनकी विद्वत्ता काव्य में पद-पद पर परिलक्षित होती है। भाषा पर पूर्ण अधिकार होने के
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